google() // Google's Maven repository https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 1. आध्यात्मिकता के नशा की संगत और ज्योतिष : ।। श्राद्ध का ज्योतिष में महत्व और महातम ।।

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।। श्राद्ध का ज्योतिष में महत्व और महातम ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्राद्ध का ज्योतिष में महत्व और महातम ।।


श्राद्ध - तर्पण विषयक शंका - समाधान...! 

प्रश्न : मेरे मन में सदा ये संशय रहता है की मनुष्यों द्वारा पितरों का जो तर्पण किया जाता है...? 

उसमें जल तो जल में ही चला जाता है; फिर हमारे पूर्वज उस से तृप्त कैसे होते हैं ? 

इसी प्रकार पिंड आदि का सब दान भी यहीं देखा जाता है। 

अतः हम यह कैसे कह सकते हैं की यह पितर आदि के उपभोग में आता है ?

उत्तर : पितरों और देवताओं की योनि ही ऐसी होती है की वे दूर की कही हुई बातें सुन लेते हैं...! 

दूर की पूजा भी ग्रहण कर लेते हैं और दूर की स्तुति से भी संतुष्ट होते हैं...! 

इस के सिवा ये भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ जानते और सर्वत्र पहुचते हैं...! 

पांच तन्मात्राएँ, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति – इन नौ तत्वों का बना हुआ उनका शरीर होता है...! 

इस के भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान् पुरुषोत्तम निवास करते हैं...! 

इस लिए देवता और पितर गंध तथा रस तत्व से तृप्त होते हैं। 

शब्द तत्व से रहते हैं तथा स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं और किसी को पवित्र देख कर उनके मन में बड़ा संतोष होता है...! 







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जैसे पशुओं का भोजन तृण और मनुष्यों का भोजन अन्न कहलाता है....! 

वैसे ही देवयोनियों का भोजन अन्न का सार तत्व है सम्पूर्ण देवताओं की शक्तियां अचिन्त्य एवं ज्ञानगम्य हैं। 

अतः वे अन्न और जल का सार तत्व ही ग्रहण करते हैं, शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं स्थित देखी जाती है।

प्रश्न : श्राद्ध का अन्न तो पितरों को दिया जाता है, परन्तु वे अपने कर्म के अधीन होते हैं...? 

यदि वे स्वर्ग अथवा नर्क में हों, तो श्राद्ध का उपभोग कैसे कर सकते हैं ? 

और वैसी दशा में वरदान देने में भी कैसे समर्थ हो सकते हैं ?

उत्तर : यह सत्य है की पितर अपने अपने कर्मों के अधीन होते हैं...! 

परन्तु देवता, असुर और यक्ष आदि के तीन अमूर्त तथा चार वर्णों के चार मूर्त – ये सात प्रकार के पितर माने गए हैं...! 

ये नित्य पितर हैं, ये कर्मों के अधीन नहीं, ये सबको सब कुछ देने में समर्थ हैं। 

वे सातों पितर भी सब वरदान आदि देते हैं  उनके अधीन अत्यंत प्रबल इकतीस गण होते हैं। 

इस लोक में किया हुआ श्राद्ध उन्ही मानव पितरों को तृप्त करता है। 

वे तृप्त होकर श्राद्धकर्ता के पूर्वजों को जहाँ कहीं भी उनकी स्थिति हो...! 

जाकर तृप्त करते हैं। 

इस प्रकार अपने पितरों के पास श्राद्ध में दी हुई वस्तु पहुचती है...! 

और वे श्राद्ध ग्रहण करने वाले नित्य पितर ही श्राद्ध कर्ताओं को श्रेष्ठ वरदान देते हैं।

प्रश्न : जैसे भूत आदि को उन्हीं के नाम से ‘इदं भूतादिभ्यः” कह कर कोई वस्तु दी जाती है....? 

उसी प्रकार देवता आदि को संक्षेप में क्यों नहीं दिया जाता है ? 

मंत्र आदि के प्रयोग द्वारा विस्तार क्यों किया जाता है ?

उत्तर : सदा सबके लिए उचित प्रतिष्ठा करनी चाहिए...! 

उचित प्रतिष्ठा के बिना दी हुई कोई वास्तु देवता आदि ग्रहण नहीं करते घर के दरवाजे पर बैठा हुआ कुत्ता, जिस प्रकार ग्रास ( फेंका हुआ टुकड़ा ) ग्रहण करता है...! 

क्या कोई श्रेष्ठ पुरुष भी उसी प्रकार ग्रहण करता है ? 

इसी प्रकार भूत आदि की भाँती देवता कभी अपना भाग ग्रहण नहीं करते वे पवित्र भोगों का सेवन करने वाले तथा निर्मल हैं...! 

अतः अश्रद्धालु पुरुष के द्वारा बिना मन्त्र के दिया हुआ जो कोई भी हव्य भाग होता है...! 

उसे वे स्वीकार नहीं करते यहाँ मन्त्रों के विषय में श्रुति भी इस प्रकार कहती है -

” सब मन्त्र ही देवता हैं, विद्वान पुरुष जो जो कार्य मन्त्र के साथ करता है...! 

उसे वह देवताओं के द्वारा ही संपन्न करता है। 

मंत्रोच्चारणपूर्वक जो कुछ देता है, वह देवताओं द्वारा ही देता है। 

मन्त्रपूर्वक जो कुछ ग्रहण करता है, वह देवताओं द्वारा ही ग्रहण करता है...! 

इस लिए मंत्रोच्चारण किये बिना मिला हुआ प्रतिग्रह न स्वीकार करे बिना मन्त्र के जो कुछ किया जाता है...! 

वह प्रतिष्ठित नहीं होता “इस कारण पौराणिक और वैदिक मन्त्रों द्वारा ही सदा दान करना चाहिए।

प्रश्न : कुश, तिल, अक्षत और जल – इन सब को हाथ में लेकर क्यों दान दिया जाता है? 

मैं इस कारण को जानना चाहता हूँ।

उत्तर : प्राचीन काल में मनुष्यों ने बहुत से दान किये, और उन सबको असुरों ने बलपूर्वक भीतर प्रवेश करके ग्रहण कर लिया। 

तब देवताओं और पितरों ने ब्रह्मा जी से कहा – स्वामिन ! 

हमारे देखते देखते दैत्यलोग सब दान ग्रहण कर लेते हैं। 

अतः आप उनसे हमारी रक्षा करें, नहीं तो हम नष्ट हो जायेंगे।” 

तब ब्रह्मा जी ने सोच विचार कर दान की रक्षा के लिए एक उपाय निकल। 

पितरों को तिल के रूप में दान दिया जाए, देवताओं को अक्षत के साथ दिया जाए तथा जल और कुश का सम्बन्ध सर्वत्र रहे। 

ऐसा करने पर दैत्य उस दान को ग्रहण नहीं कर सकते। 

इन सबके बिना जो दान किया जाता है, उस पर दैत्य लोग बलपूर्वक अधिकार कर लेते हैं और देवता तथा पितर दुखपूर्वक उच्ह्वास लेते हुए लौट जाते हैं। 

वैसे दान से दाता को कोई फल नहीं मिलता। 

इस लिए सभी युगों में इसी प्रकार ( तिल, अक्षत, कुश और जल के साथ ) दान दिया जाता है।

अगर श्राद्ध करनेके लिये किसीके पास में कुछ भी न हो तो वह क्या करे ?

अगर किसी के पास श्राद्ध करने के लिए धन न हो, तो उसे अपनी क्षमतानुसार कुछ भी दान करना चाहिए, जैसे दूध, फल या सब्जियां। 

अगर यह भी संभव न हो, तो आप कुशा ( एक प्रकार की घास ) का पिंड बनाकर गाय को खिला सकते हैं या नदी किनारे से मिट्टी का पिंड बना कर दान कर सकते हैं। 

यदि ये भी संभव न हो तो अपने हाथ उठाकर पितरों से संतुष्ट होने की प्रार्थना करें।

अगर किसी के पास में कुछ भी न हो, घर में खाने के लिये अन्न भी न हो तो पितरों के नाम से गाय को हरी-हरी घास देनी चाहिये। 

इससे भी पितरों की तृप्ति होती है।

अगर घास भी देने की शक्ति न हो तो दोनों हाथ ऊपर उठाकर....! 

अपनी काँखें दिखाकर प्रार्थना करे कि 'मैं भूखा हूँ, मेरे पास खाने के लिये भी कुछ नहीं है...! 

मुझे क्षमा करें' ऐसा कहकर दण्डवत् प्रणाम करे तो इससे भी पितरों की तृप्ति होती है।

              || सर्व पितरेशवराय नमः ||

आज आश्विन मास कृष्ण पक्ष वर्षा ऋतू षष्ठी मंगलवार भरणी /कृत्तिका नक्षत्र है : 

आज षष्ठी  की श्राद्ध होगी  

आज  स्वर्ग  की भद्रा  रात्रि ८\१५ के बाद...!
   
सर्वार्थ सिद्ध योग दिन  में ६ \ ३३ के बाद रवि योग दिन   दिन में ६ \ ३३ के बाद  तीन  गुना शुभ  अशुभ त्रिपुष्कर योग  रात्रि  ८\४५ के बाद कल सप्तमी की श्राद्ध होगी...!







इसी प्रकार श्राद्ध की जानकारी प्रति दिन दे दी जायेगी 

गृहो ंका राशि में संचरण 
सूर्य / सिंह 
चंद्र /  मेष 
वृष  में   दिन में  १\ ७ पर 
मंगल / मेष  
बुध /  कन्या 
गुरु / धनु 
# शुक्र / कर्क 
शनि मकर
#राहु मिथुन
#  केतु / धनु

# नोट # चिन्ह वक्री  की पहचान है
चरण शरण में आय के, धरूं तिहारा ध्यान
संकट से रक्षा करो
संकट से रक्षा करो, पवनपुत्र हनुमान
दुर्गम काज बनाय के, कीन्हें भक्त निहाल
अब मोरी विनती सुनो
अब मोरी विनती सुनो, हे अंजनि के लाल
हाथ जोड़ विनती करूं, सुनो वीर हनुमान
कष्टों से रक्षा करो
कष्टों से रक्षा करो, राम भक्ति देहुँ दान पवनपुत्र हनुमान। ॐ हनुमते नमः।

|| श्राद्ध की परिभाषा ||

पितरों के उद्देश्य से विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धासे किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं -

श्रद्धया पितॄन् उद्दिश्य विधिना क्रियते यत्कर्म तत् श्राद्धम्। श्रद्धासे ही श्राद्ध शब्दकी निष्पत्ति होती है-

श्रद्धार्थमिदं श्राद्धम्', श्रद्धया कृतं सम्पादितमिदम्',' श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छ्राद्धम्' तथा 'श्रद्धया इदं श्राद्धम् '। 

अर्थात् अपने मृत पितृगण के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले कर्मविशेष को श्राद्ध शब्द के नाम से जाना जाता है। 

इसे ही पितृयज्ञ भी कहते हैं, जिसका वर्णन मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों, पुराणों तथा वीरमित्रोदय, श्राद्धकल्पलता, श्राद्धतत्त्व, पितृदयिता आदि अनेक ग्रन्थोंमें प्राप्त होता है।

महर्षि पराशर के अनुसार 'देश, काल तथा पात्र में हविष्यादि विधिद्वारा जो कर्म तिल ( यव ) और दर्भ ( कुश ) तथा मन्त्रों से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाय, वही श्राद्ध है।

देशे काले च पात्रे च विधिना हविषा च यत्। 
 तिलैर्दर्भेश्च मन्त्रैश्च श्राद्धं स्याच्छूद्धया युतम् ।।

महर्षि बृहस्पति तथा श्राद्धतत्त्वमें वर्णित महर्षि पुलस्त्य के वचनके अनुसार- 'जिस कर्मविशेष में दुग्ध, घृत और मधु से युक्त सुसंस्कृत ( अच्छी प्रकारसे पकाये हुए ) उत्तम व्यंजन को श्रद्धापूर्वक पितृगण के उद्देश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाय, उसे श्राद्ध कहते हैं ।

संस्कृतं व्यञ्जनाद्यं च पयोमधुघृतान्वितम् ।
  श्रद्धया दीयते यस्माच्छ्राद्धं तेन निगद्यते ॥

इसी प्रकार ब्रह्मपुराण में भी श्राद्ध का लक्षण लिखा है- 

'देश, काल और पात्र में विधिपूर्वक श्रद्धा से पितरों के उद्देश्य से जो ब्राह्मण को दिया जाय,उसे श्राद्ध कहते हैं।'

 देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत्।
   पितृनुद्दिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहृतम् ॥

श्राद्धकर्ता का भी कल्याण जो प्राणी विधिपूर्वक शान्तमन होकर श्राद्ध करता है...! 

वह सभी पापों से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त होता है तथा फिर संसार - चक्र में नहीं आता।

योऽनेन विधिना श्राद्धं कुर्याद् वै शान्तमानसः ।
     व्यपेतकल्मषो नित्यं याति नावर्तते पुनः॥

       || श्राद्ध अवश्य करें ||

पितृपक्ष पर विषेश भाग - 

प्रश्न 1 : क्या यह सत्य है कि श्री राम और माता सीता ने श्राद्ध पूजा की थी ?

उत्तर : हाँ गरुड़ पुराण प्रेत खण्ड 10.31.51 में यह कहा गया है : - 

"हे गरुड़जी ! 

मैं आपको बताऊँगा कि कैसे एक बार सीता ने एक ब्राह्मण के शरीर में पूर्वजों, उसके ससुर, दादा को देखा । 

और परदादा - ससुर को । 

पिता के कहने पर राम वन चले गए ।  

जब वे पवित्र केंद्र पुष्कर पहुँचे, तो उन्होंने अपनी पत्नी सीता के साथ पेड़ों से एकत्रित पके फल सीता के साथ श्राद्ध किया । 

जब सूर्य आकाश के बीच में पहुँचा तो राम द्वारा आमंत्रित ऋषियों ने स्वयं को प्रस्तुत किया ।  

जब सीता ने ऋषियों को देखा तो वह अत्यंत प्रसन्न हुई । 

राम के निर्देश पर उन्होंने उन्हें भोजन कराया । 

फिर अचानक वह ब्राह्मणों के बीच से दूर हो गई । 

स्वयं को झाड़ियों के पीछे ढँककर वह छिप गई । 

तब यह जानकर कि सीता अकेली चली गई हैं, राम चिंतित थे और विचार में खो गए थे । 

उन्हों ने सोचा कि वह ब्राह्मणों को भोजन दिए बिना इतनी जल्दी क्यों चली गई । 

उन्होंने मन ही मन सोचा "शायद उन्हें लज्जा आ रही थी, मैं उन्हें ढूँढ़ लूँगा" ।  

ऐसा सोचकर उन्होंने स्वयं ब्राह्मणों को भोजन दिया ।  

जब ब्राह्मण चले गए तो सीता लौट आईं । 

तब श्री राम ने उनसे कहा :- 

“जब ऋषि यहाँ वन में आए तो आप क्यों चले गयीं । 

मुझे आपके अचानक चले जाने का कारण बताएं" तब माता सीता अपना चेहरा नीचे करके खड़ी हो गई । 

उनकी आँखों से बहते आँसुओं के साथ उन्होंने अपने ईश्वर से इस प्रकार बात की ।  

"भगवान सुनो, मैंने यहाँ एक चमत्कार देखा । 

मैंने तुम्हारे पिता को शाही पोशाक पहने ब्राह्मणों के सामने देखा । 

मैंने दो बुज़ुर्गों को एक जैसे वेश में देखा । 

तुम्हारे पिता को देखकर मैं उनके सामने से हट गई । 

छाल और खाल पहने हुए, मैं उन्हें भोजन के साथ कैसे परोस सकता थी ?  

मैं कैसे उन्हें घास के पात्र में भोजन दे सकता थी, जिसमें दास भी नहीं खाते थे ? 

मैं पसीने और गंदगी से भरा हुई, उनके सामने कैसे जा सकती थी कि उन्होंने मुझे पहले कभी उस दयनीय स्थिति में नहीं देखा था ?  

मुझे लज्जा आ रही थी और मैं उनकी उपस्थिति से दूर हो गई । 

हे स्वामी ! 

इस प्रकार हे गरुड़ ! 

मैंने आपको बताया है कि सीता ने पूर्वजों को कैसे देखा ।

प्रश्न 2 : क्या श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्राद्ध ( पिंड ) पूजा की थी ?

उत्तर : हाँ श्री चैतन्य महाप्रभु जो श्री राधा और कृष्ण के अवतार हैं...! 

ने श्राद्ध पूजा की थी और इसकी पुष्टि चैतन्य चरितामृत आदि लीला अध्याय 17 श्लोक 8 में की गई है । 

"इसके बाद भगवान गया गए, वहाँ उनका साक्षात्कार श्रील ईश्वर पुरी से हुआ" ।  

श्रील प्रभुपाद द्वारा अभिप्राय "श्री चैतन्य महाप्रभु अपने पूर्वजों को सम्मान जनक आहुति देने के लिए गया गए थे । 

इस प्रक्रिया को पिण्डदान कहते हैं । 

वैदिक समाज में किसी के संबंधी, विशेष रूप से किसी के पिता या माता की मृत्यु के बाद, व्यक्ति को गया जाना चाहिए । 

और वहाँ श्री विष्णु के चरण कमलों को प्रसाद अर्पण करना चाहिए । 

इस लिए सैकड़ों और हजारों पुरुष प्रतिदिन इस तरह के प्रसाद, या श्राद्ध के लिए गया में इकट्ठा होते हैं । 

इस सिद्धांत का पालन करते हुए, भगवान चैतन्य महाप्रभु भी अपने मृत पिता को पिंड देने के लिए वहाँ गए । 

सौभाग्य से वह वहाँ ईश्वर पुरी से मिले ।

प्रश्न 3 : क्या हमें भगवान सूर्य ( सूर्य ) को अपना दैनिक जल ( जल ) चढ़ाने की अनुमति है ?

उत्तर  : हाँ

प्रश्न 4 : क्या इस समय में कोई अपना जन्मदिन मना सकता है ?

उत्तर : हाँ यह ठीक है । 

निश्चित रूप से रूढ़िवादी वृद्ध लोगों के साथ यह ठीक नहीं होगा...! 

परन्तु एक छोटे बच्चे को समझाने की कोशिश करें कि "बेटे क्षमा करें मैं आपका जन्मदिन नहीं मना सकता क्योंकि यह पितृ पक्ष है"।  

यह बालक बड़ा होकर पितृ पक्ष से घृणा करेगा । 

हमें समय के साथ आगे बढ़ना है ।

प्रश्न 5 : हम कितने निश्चित हैं कि हम जो भोजन करते हैं वह हमारे पूर्वजों को जाता है ?

उत्तर : गरुड़ पुराण प्रेत खण्ड 19. 26-27 में श्री गरुड़ जी पूछते हैं :-  

"हे श्री विष्णु ! 

घर में सम्बन्धियों द्वारा मृतक के पक्ष में चीजें उपहार में दी जाती हैं । 

वे मृतक तक कैसे पहुँचती हैं और उन्हें कौन प्राप्त करता है" ? 

श्री विष्णु ने उत्तर दिया "हे गरुड़ ! 

वरुण देव ( समुद्रों के प्रभारी देव ) उन उपहारों को प्राप्त करते हैं और उन्हें मुझे सौंप देते हैं । 

मैं उन्हें सूर्यदेव को देती हूँ, और सूर्यदेव से मृत व्यक्ति उन्हें प्राप्त करता है" । 

इस लिए उपरोक्त श्लोक से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि आप जो कुछ भी अपनी ओर से देते हैं या जो भोजन आप अपने पूर्वजों को देते हैं...! 

वह भोजन / उपहार उस आत्मा को जाता है, चाहे वह किसी भी रूप में हो ।

क्रमशः...

जय जय श्री राम राम राम..!!!

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Ramanatha Swami Covil Car Parking Ariya Strits , Nr. Maghamaya Amman Covil Strits , V.O.C. Nagar , RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय ,द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

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