google() // Google's Maven repository https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 1. आध्यात्मिकता के नशा की संगत और ज्योतिष : 08/30/20

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।। बहुत सुंदर शिक्षा पद कहानी ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

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|| रंग पंचमी ||


रंग पंचमी भारत में एक ऐसा त्योहार है, जो केवल आनंद मनाने का अवसर नहीं है, बल्कि यह आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक परंपराओं से जुड़ने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी है। 

यह पर्व होली के पांच दिन बाद मनाया जाता है। 

होली के समय लोग एक - दूसरे पर रंग डालकर खुशियाँ मनाते हैं, जबकि रंग पंचमी पर रंगों और गुलाल को आसमान में उड़ाने की परंपरा है। 

धार्मिक दृष्टिकोण से, ऐसा करने से न केवल वातावरण की शुद्धि होती है, बल्कि देवताओं का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है।

रंग पंचमी विशेष रूप से महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बड़े धूमधाम से मनाई जाती है।
महाराष्ट्र में इसे “ शिमगा ” के नाम से जाना जाता है, और इस अवसर पर विशेष जुलूस निकाले जाते हैं। 

इस दिन मंदिरों और घरों में भगवान कृष्ण और राधा रानी की पूजा की जाती है। 

इसके साथ ही, कई स्थानों पर महालक्ष्मी पूजा का आयोजन भी किया जाता है, जिससे घर में सुख और समृद्धि बनी रहे।


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रंग पंचमी का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व :

भगवान कृष्ण और राधा रानी की होली रंग पंचमी के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने राधा रानी और गोपियों के साथ होली खेलने की मान्यता है। 

इस आनंद के अवसर पर देवताओं ने आकाश से फूलों की वर्षा की, जिसे देखकर लोगों ने रंगों और गुलाल के साथ इस परंपरा की शुरुआत की।

गुलाल उड़ाने की परंपरा :

कहा जाता है कि रंग पंचमी पर गुलाल उड़ाने से देवता प्रसन्न होते हैं। 

और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। 

यह रंग केवल बाहरी नहीं होते, बल्कि हमारे जीवन में नई ऊर्जा और उत्साह का संचार भी करते है।

नकारात्मक शक्तियों से मुक्ति :

पौराणिक मान्यता के अनुसार, रंग पंचमी के दिन वातावरण में फैली सभी नकारात्मक शक्तियाँ समाप्त हो जाती हैं। 

और वातावरण शुद्ध हो जाता है। 

इस दिन किए गए विशेष पूजन से घर में शांति और समृद्धि का आगमन होता है।

          || रंग पंचमी की शुभकामनाएं ||


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शीतला सप्तमी - अष्टमी पर बासी खाने का भोग क्यों लगाया जाता है ? 

क्या है इस दिन का आपकी सेहत से कनेक्शन, जानें शीतला माता को ठंडा भोजन चढ़ाने के पीछे का महत्व, वैज्ञानिक और धार्मिक कारण...!

सिल सप्तमी 2025 : भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं का अपना विशेष महत्व है। 

शीतला सप्तमी और अष्टमी का पर्व हिन्दू धर्म में विशेष महत्व रखता है। 

इसे बासोड़ा भी कहा जाता है।

इस दिन शीतला माता की पूजा की जाती है और उन्हें बासी खाने का भोग लगाया जाता है। 

शीतला माता की पूजा में विशेष रूप से बासी खाने का भोग अर्पित किया जाता है। 

यह पर्व चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी और अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। 

2025 में सील सप्तमी 21 मार्च को और शीतला अष्टमी 22 मार्च को रहेगी। 

इस दिन शीतला माता की पूजा कर घर - परिवार की सुख-समृद्धि और आरोग्यता की कामना की जाती है। 



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क्या आप जानते हैं कि आखिर क्यों इस दिन बासी खाना खाने और भोग लगाने की परंपरा है? 

साथ ही क्या बासी खाना सेहत के लिए फायदेमंद है? 

आइए, इन सभी सवालों के जवाब जानते हैं। 
 
शीतला सप्तमी - अष्टमी का महत्व : -

शीतला सप्तमी और अष्टमी का पर्व होली के बाद मनाया जाता है। 

इसे •' बासौड़ा ' भी कहा जाता है। 

शीतला सप्तमी का पर्व विशेष रूप से उत्तर भारत, राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। 

इस दिन शीतला माता की पूजा कर बासी भोजन का भोग लगाया जाता है। 

मान्यता है कि शीतला माता को ठंडा और बासी भोजन अत्यंत प्रिय है। 

इस दिन महिलाएं प्रातःकाल उठकर शीतला माता के मंदिर में जाकर पूजन करती हैं और वहां बासी खाने का प्रसाद चढ़ाती हैं। 



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मुख्य रूप से गुड़, चूरमा, बासी पूड़ी, बाजरे की रोटी और कढ़ी का भोग लगाया जाता है। 

इस पर्व का एक प्रमुख उद्देश्य रोग - निवारण और स्वच्छता का संदेश देना है। 

शीतला माता को देवी पार्वती का रूप माना जाता है, जो विशेष रूप से चेचक और अन्य संक्रामक रोगों से बचाव करती हैं। 

शीतला माता को ठंडक और शीतलता का प्रतीक माना जाता है, इस लिए पूजा में गर्म या ताजे भोजन का प्रयोग नहीं होता।
 
क्यों चढ़ाया जाता है बासी खाने का भोग ?


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तपन और शीतलता का संतुलन:- 

होली का त्योहार गर्मी का प्रतीक होता है, जबकि शीतला माता को शीतलता का प्रतीक माना जाता है। 

बासी खाने का भोग शीतलता का प्रतीक है और इसे ग्रहण कर मां को प्रसन्न किया जाता है।

धार्मिक मान्यता:- 

धार्मिक मान्यता के अनुसार, होली के दिन ताजे खाने का भोग चढ़ाया जाता है, भारत अपडेटस कि प्रस्तुति - जबकि शीतला सप्तमी पर बासी भोजन का। 

इससे यह संकेत मिलता है कि जीवन में शीतलता और धैर्य का महत्व कितना है।

संक्रामक रोगों से बचाव : - 

प्राचीन समय में चेचक और खसरा जैसी बीमारियां अधिक फैलती थीं। 

इस दिन खाना न पकाने की परंपरा इसलिए भी है ताकि भोजन में धूल - मिट्टी और संक्रमण न लगे।
 
क्या बासी खाना सेहत के लिए फायदेमंद है?

बासी खाने को लेकर अलग - अलग धारणाएं प्रचलित हैं। 

कुछ लोग इसे सेहत के लिए हानिकारक मानते हैं, जबकि कुछ इसे पाचन शक्ति के लिए लाभकारी मानते हैं।
 
बासी खाने के फायदे : -

पाचन में सहायक : - 

बासी खाना ठंडा होने के कारण पाचन तंत्र पर अतिरिक्त दबाव नहीं डालता।

प्रोबायोटिक्स से भरपूर : - 

बासी चावल और दही में प्राकृतिक रूप से प्रोबायोटिक्स होते हैं जो आंतों के स्वास्थ्य के लिए अच्छे माने जाते हैं।

ऊर्जा का स्त्रोत:- 

बासी खाने में ऊर्जा बनाए रखने के लिए आवश्यक पोषक तत्व भी होते हैं।

शीतला सप्तमी:- 

अष्टमी पर बासी खाने का भोग लगाने की परंपरा का वैज्ञानिक आधार भी है। 

गर्मी के मौसम में ताजे खाने की तुलना में बासी खाने को सही तरीके से संग्रहित करके खाने से पाचन प्रक्रिया में सहायता मिलती है। 

यही कारण है कि इस दिन बासी भोजन चढ़ाया जाता है और प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। 

शीतला सप्तमी - अष्टमी का पर्व केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक ही नहीं, बल्कि स्वस्थ जीवन शैली का भी संदेश देता है। 

हालांकि, यदि आप सेहत को प्राथमिकता देते हैं, तो बासी खाने को लेकर सावधानी जरूर बरतें।

     जय_शीतला_माई_की


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आज की कहानी बहुत ही प्यारी है !

जिस घर में जायदाद के लिए जमीन ,मकान के लिए भाई भाई मै लड़ाई होती है आज उनके लिए यह कहानी मै मुझे उम्मीद है हमारे सभी भाई / बहिन जरूर पढ़ेंगे और दूसरो को भी सुनाएंगे सभी पढ़े..!

अच्छे अच्छे महलों मे भी एक दिन कबूतर अपना घोंसला बना लेते है...!
              
सेठ घनश्याम के दो पुत्रों में जायदाद और ज़मीन का बँटवारा चल रहा था और एक चार पट्टी के कमरे को लेकर विवाद गहराता जा रहा था...! 

एकदिन दोनो भाई मरने मारने पर उतारू हो चले , तो पिता जी बहुत जोर से हँसे। 

पिताजी को हँसता देखकर दोनो भाई  लड़ाई को भूल गये,  और पिताजी से हँसी का कारण पुछा। 
               
तो पिताजी ने कहा-- इस छोटे से ज़मीन के टुकडे के लिये इतना लड़ रहे हो छोड़ो इसे आओ मेरे साथ एक अनमोल खजाना बताता हूँ मैं तुम्हे !
              
पिता घनश्याम जी और दोनो पुत्र पवन और मदन उनके साथ रवाना हुये पिताजी ने कहा देखो यदि तुम आपस मे लड़े तो फिर मैं तुम्हे उस खजाने तक नही लेकर जाऊँगा और बीच रास्ते से ही लौटकर आ जाऊँगा !
                  
अब दोनो पुत्रों ने खजाने के चक्कर मे एक समझौता किया की चाहे कुछ भी हो जाये पर हम लड़ेंगे नही प्रेम से यात्रा पे चलेंगे !
                 
गाँव जाने के लिये एक बस मिली पर  सीट दो की मिली, और  वो तीन थे, अब पिताजी के साथ थोड़ी देर पवन बैठे तो थोड़ी देर मदन ऐसे चलते - चलते लगभग दस घण्टे का सफर तय किया फिर गाँव आया।
                  
घनश्याम दोनो पुत्रों को लेकर एक बहुत बड़ी हवेली पर गये हवेली चारों तरफ से सुनसान थी। 

घनश्याम ने जब देखा की हवेली मे जगह जगह कबूतरों ने अपना घोसला बना रखा है, तो घनश्याम वहीं पर बैठकर रोने लगे।
               
दोनो पुत्रों ने पुछा क्या हुआ पिताजी आप रो क्यों रहे है ?
     
तो रोते हुये उस वृद्ध पिता ने कहा जरा ध्यान से देखो इस घर को, जरा याद करो वो बचपन जो तुमने यहाँ बिताया था...!

तुम्हे याद है पुत्र इस हवेली के लिये मैं ने अपने भाई से बहुत लड़ाई की थी, सो ये हवेली तो मुझे मिल गई पर मैंने उस भाई को हमेशा के लिये खो दिया...!

क्योंकि वो दूर देश में जाकर बस गया और फिर वक्त्त बदला और एक दिन हमें भी ये हवेली छोड़कर जाना पड़ा ! 
         
अच्छा तुम ये बताओ बेटा की जिस सीट पर हम बैठकर आये थे, क्या वो बस की सीट हमें मिल जायेगी ? 

और यदि मिल भी जाये तो क्या वो सीट हमेशा - हमेशा के लिये हमारी हो सकती है ? 

मतलब की उस सीट पर हमारे सिवा कोई न बैठे। 

तो दोनो पुत्रों ने एक साथ कहा की ऐसे कैसे हो सकता है , बस की यात्रा तो चलती रहती है और उस सीट पर सवारियाँ बदलती रहती है। 

पहले कोई और बैठा था , आज कोई और बैठा होगा और पता नही कल कोई और बैठेगा। 

और वैसे भी उस सीट में क्या धरा है जो थोड़ी सी देर के लिये हमारी है !
                 
पिताजी फिर हँसे फिर रोये और फिर वो बोले देखो यही तो मैं तुम्हे समझा रहा हूँ...!

कि जो थोड़ी देर के लिये तुम्हारा है....!

तुमसे पहले उसका मालिक कोई और था बस थोड़ी सी देर के लिये तुम हो और थोड़ी देर बाद कोई और हो जायेगा।
                
बस बेटा एक बात ध्यान रखना की इस थोड़ी सी देर के लिये कही अनमोल रिश्तों की आहुति न दे देना, यदि कोई प्रलोभन आये तो इस घर की इस स्थिति को देख लेना की अच्छे अच्छे महलों में भी एक दिन कबूतर अपना घोसला बना लेते है। 

बस बेटा मुझे यही कहना था -- 

कि  बस की उस सीट को याद कर लेना जिसकी रोज उसकी सवारियां बदलती रहती है उस सीट के खातिर अनमोल रिश्तों की आहुति न दे देना जिस तरह से बस की यात्रा में तालमेल बिठाया था बस वैसे ही जीवन की यात्रा मे भी तालमेल बिठा लेना !

           
दोनो पुत्र पिताजी का अभिप्राय समझ गये, और पिता के चरणों में गिरकर रोने लगे !

शिक्षा :- 

जो कुछ भी ऐश्वर्य - सम्पदा हमारे पास है वो सबकुछ बस थोड़ी देर के लिये ही है , थोड़ी - थोड़ी देर मे यात्री भी बदल जाते है और मालिक भी। 

रिश्तें बड़े अनमोल होते है छोटे से ऐश्वर्य या सम्पदा के चक्कर मे कहीं किसी अनमोल रिश्तें को न खो देना ! !

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🌹🌹जय श्री कृष्ण🌹🌹🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

जल झुलनि एकादशी ,पद्मा एकादशी →

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युधिष्ठिर ने पूछा : 

केशव ! 



कृपया यह बताइये कि भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है, उसके देवता कौन हैं और कैसी विधि है?

भगवान श्रीकृष्ण बोले : 

राजन् ! 

इस विषय में मैं तुम्हें आश्चर्यजनक कथा सुनाता हूँ, जिसे ब्रह्माजी ने महात्मा नारद से कहा था ।

नारदजी ने पूछा : 

चतुर्मुख ! 

आपको नमस्कार है ! 

मैं भगवान विष्णु की आराधना के लिए आपके मुख से यह सुनना चाहता हूँ कि भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ?



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ब्रह्माजी ने कहा : 

मुनिश्रेष्ठ ! 

तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है । 

क्यों न हो, वैष्णव जो ठहरे ! 

भादों के शुक्लपक्ष की एकादशी ‘पद्मा’ के नाम से विख्यात है । 

उस दिन भगवान ह्रषीकेश की पूजा होती है । 

यह उत्तम व्रत अवश्य करने योग्य है । 

सूर्यवंश में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती, सत्यप्रतिज्ञ और प्रतापी राजर्षि हो गये हैं । 

वे अपने औरस पुत्रों की भाँति धर्मपूर्वक प्रजा का पालन किया करते थे । 

उनके राज्य में अकाल नहीं पड़ता था, मानसिक चिन्ताएँ नहीं सताती थीं और व्याधियों का प्रकोप भी नहीं होता था । 



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उनकी प्रजा निर्भय तथा धन धान्य से समृद्ध थी । 

महाराज के कोष में केवल न्यायोपार्जित धन का ही संग्रह था । 

उनके राज्य में समस्त वर्णों और आश्रमों के लोग अपने अपने धर्म में लगे रहते थे । 

मान्धाता के राज्य की भूमि कामधेनु के समान फल देनेवाली थी । 

उनके राज्यकाल में प्रजा को बहुत सुख प्राप्त होता था ।

एक समय किसी कर्म का फलभोग प्राप्त होने पर राजा के राज्य में तीन वर्षों तक वर्षा नहीं हुई । 

इससे उनकी प्रजा भूख से पीड़ित हो नष्ट होने लगी । 

तब सम्पूर्ण प्रजा ने महाराज के पास आकर इस प्रकार कहा :

प्रजा बोली: 

नृपश्रेष्ठ ! 

आपको प्रजा की बात सुननी चाहिए । 

पुराणों में मनीषी पुरुषों ने जल को ‘नार’ कहा है । 

वह ‘नार’ ही भगवान का ‘अयन’ ( निवास स्थान ) है, इस लिए वे‘नारायण’ कहलाते हैं । 

नारायणस्वरुप भगवान विष्णु सर्वत्र व्यापकरुप में विराजमान हैं । 

वे ही मेघस्वरुप होकर वर्षा करते हैं, वर्षा से अन्न पैदा होता है और अन्न से प्रजा जीवन धारण करती है । 

नृपश्रेष्ठ ! 

इस समय अन्न के बिना प्रजा का नाश हो रहा है, अत: ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे हमारे योगक्षेम का निर्वाह हो ।

राजा ने कहा : 

आप लोगों का कथन सत्य है, क्योंकि अन्न को ब्रह्म कहा गया है । 

अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं और अन्न से ही जगत जीवन धारण करता है । 

लोक में बहुधा ऐसा सुना जाता है तथा पुराण में भी बहुत विस्तार के साथ ऐसा वर्णन है कि राजाओं के अत्याचार से प्रजा को पीड़ा होती है, किन्तु जब मैं बुद्धि से विचार करता हूँ तो मुझे अपना किया हुआ कोई अपराध नहीं दिखायी देता । 

फिर भी मैं प्रजा का हित करने के लिए पूर्ण प्रयत्न करुँगा ।

ऐसा निश्चय करके राजा मान्धाता इने गिने व्यक्तियों को साथ ले, विधाता को प्रणाम करके सघन वन की ओर चल दिये । 

वहाँ जाकर मुख्य मुख्य मुनियों और तपस्वियों के आश्रमों पर घूमते फिरे । 

एक दिन उन्हें ब्रह्मपुत्र अंगिरा ॠषि के दर्शन हुए । 

उन पर दृष्टि पड़ते ही राजा हर्ष में भरकर अपने वाहन से उतर पड़े और इन्द्रियों को वश में रखते हुए दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने मुनि के चरणों में प्रणाम किया । 

मुनि ने भी ‘स्वस्ति’ कहकर राजा का अभिनन्दन किया और उनके राज्य के सातों अंगों की कुशलता पूछी । 

राजा ने अपनी कुशलता बताकर मुनि के स्वास्थय का समाचार पूछा । 

मुनि ने राजा को आसन और अर्ध्य दिया । 

उन्हें ग्रहण करके जब वे मुनि के समीप बैठे तो मुनि ने राजा से आगमन का कारण पूछा ।

राजा ने कहा : 

भगवन् ! 

मैं धर्मानुकूल प्रणाली से पृथ्वी का पालन कर रहा था । 

फिर भी मेरे राज्य में वर्षा का अभाव हो गया । 

इसका क्या कारण है इस बात को मैं नहीं जानता ।

ॠषि बोले : 

राजन् ! 

सब युगों में उत्तम यह सत्ययुग है । 

इस में सब लोग परमात्मा के चिन्तन में लगे रहते हैं तथा इस समय धर्म अपने चारों चरणों से युक्त होता है । 

इस युग में केवल ब्राह्मण ही तपस्वी होते हैं, दूसरे लोग नहीं । 

किन्तु महाराज ! 

तुम्हारे राज्य में एक शूद्र तपस्या करता है, इसी कारण मेघ पानी नहीं बरसाते । 

तुम इसके प्रतिकार का यत्न करो, जिससे यह अनावृष्टि का दोष शांत हो जाय ।

राजा ने कहा : 

मुनिवर ! 

एक तो वह तपस्या में लगा है और दूसरे, वह निरपराध है । 

अत: मैं उसका अनिष्ट नहीं करुँगा । 

आप उक्त दोष को शांत करनेवाले किसी धर्म का उपदेश कीजिये ।

ॠषि बोले : 

राजन् ! 

यदि ऐसी बात है तो एकादशी का व्रत करो । 

भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में जो ‘पधा’ नाम से विख्यात एकादशी होती है, उसके व्रत के प्रभाव से निश्चय ही उत्तम वृष्टि होगी । 

नरेश ! 

तुम अपनी प्रजा और परिजनों के साथ इसका व्रत करो ।

ॠषि के ये वचन सुनकर राजा अपने घर लौट आये । 

उन्होंने चारों वर्णों की समस्त प्रजा के साथ भादों के शुक्लपक्ष की ‘पद्मा एकादशी’ का व्रत किया । 

इस प्रकार व्रत करने पर मेघ पानी बरसाने लगे । 

पृथ्वी जल से आप्लावित हो गयी और हरी भरी खेती से सुशोभित होने लगी । 

उस व्रत के प्रभाव से सब लोग सुखी हो गये ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : 

राजन् ! 

इस कारण इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए । 

‘पद्मा एकादशी’ के दिन जल से भरे हुए घड़े को वस्त्र से ढकँकर दही और चावल के साथ ब्राह्मण को दान देना चाहिए, साथ ही छाता और जूता भी देना चाहिए । 

दान करते समय निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करना चाहिए :

नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंज्ञक ॥
अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव ।
भुक्तिमुक्तिप्रदश्चैव लोकानां सुखदायकः ॥

‘बुधवार और श्रवण नक्षत्र के योग से युक्त द्वादशी के दिन बुद्धश्रवण नाम धारण करनेवाले भगवान गोविन्द ! 

आपको नमस्कार है…! 

नमस्कार है ! 

मेरी पापराशि का नाश करके आप मुझे सब प्रकार के सुख प्रदान करें । 

आप पुण्यात्माजनों को भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले तथा सुखदायक हैं |’

राजन् ! 

इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है । जय श्री कृष्ण....!!!

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