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*क्या श्राद्ध भोज में पित्र भोजन ग्रहण करने आते हैं ?*

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

*क्या श्राद्ध भोज में पित्र भोजन ग्रहण करने आते हैं ?*


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गरुङ पुराण में इसका वर्णन इस प्रसंग में है ।

भगवान *श्रीकृष्ण* से पक्षीराज गरुड़ ने पूछा- हे प्रभु ! 

पृथ्वी पर लोग अपने मृत पितरों का श्राद्ध करते हैं. उनकी रुचि का भोजन ब्राह्मणों आदि को कराते हैं. पर क्या पितृ लोक से पृथ्वी पर आकर श्राद्ध में भोजन करते पितरों को किसी ने देखा भी है ।

भगवान *श्रीकृष्ण* ने कहा- हे गरुड़ ! 

तुम्हारी शंका का निवारण करने के लिए मैं देवी सीता के साथ हुई घटना सुनाता हूं....!
 
सीताजी ने पुष्कर तीर्थ में अपने ससुर आदि तीन पितरों को श्राद्ध में निमंत्रित ब्राह्मणों के शरीर में देखा था, वह कथा सुनो ।






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गरूड़ ! 

यह तो तुम्हें ज्ञात ही है कि *श्री राम* अपने पिता दशरथ की आज्ञा के बाद वनगमन कर गये, साथ में सीता भी थीं. बाद में श्रीराम को यह पता लग चुका था कि उनके पिता उनके वियोग में शरीर त्याग चुके हैं....!




जंगल - जंगल घूमते सीता जी के साथ श्रीराम ने पुष्कर तीर्थ की भी यात्रा की. अब यह श्राद्ध का अवसर था ऐसे में पिता का श्राद्ध पुष्कर में हो इससे श्रेष्ठ क्या हो सकता था. तीर्थ में पहुंचकर उन्होंने श्राद्ध के तैयारियां आरंभ कीं ।

श्रीराम ने स्वयं ही विभिन्न शाक, फल, एवं अन्य उचित खाद्य सामग्री एकत्र की. जानकी जी ने भोजन तैयार किया....! 





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उन्होंने एक पके हुए फल को सिद्ध करके श्रीराम जी के सामने उपस्थित किया ।

श्रीराम ने ऋषियों और ब्राह्मणों को सम्मान सहित आमंत्रित किया....! 

श्राद्ध कर्म में दीक्षित श्रीराम की आज्ञा से स्वयं दीक्षित होकर सीता जी ने उस धर्म का सम्यक और उचित पालन किया....! 

सारी तैयारियां संपन्न हो गयीं अब श्राद्ध में आने वाले ऋषियों और ब्राह्मणों की प्रतीक्षा थी....! 

उस समय सूर्य आकाश मण्डल के मध्य पहुंच गए और कुतुप मुहूर्त यानी दिन का आठवां मुहूर्त अथवा दोपहर हो गयी....! 

श्री राम ने जिन ऋषियों को निमंत्रित किया था वे सभी आ गये थे ।

श्रीराम ने सभी ऋषियों और ब्राह्मणों का स्वागत और आदर सत्कार किया तथा भोजन करने के लिये आग्रह किया...! 

ऋषियों और ब्राह्मणों को भोजन हेतु आसन ग्रहण करने के बाद जानकी अन्न परोसने के लिए वहाँ आयीं....!





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उन्होंने कुछ भोजन बड़े ही भक्ति भाव से ऋषियों के समक्ष उनके पत्तों के बनी थाली परोसा...! 

वे ब्राह्मणों के बीच भी गयीं. पर अचानक ही जानकी भोजन करते ब्राह्मणों और ऋषियों के बीच से निकलीं और तुरंत वहां से दूर चली गयीं ।

सीता लताओं के मध्य छिपकर जा बैठी. यह क्रिया कलाप श्रीराम देख रहे थे....! 

सीता के इस कृत्य से श्रीराम कुछ चकित हो गए. फिर उन्होंने विचार किया - ब्राह्मणों को बिना भोजन कराए साध्वी सीता लज्जा के कारण कहीँ चली गयी होंगी ।

सीता जी एकान्त में जा बैठी हैं. फिर श्रीराम जी ने सोचा- अचानक इस कार्य का क्या कारण हो सकता है...! 

अभी यह जानने का समय नहीं....! 

जानकी से इस बात को जानने पहले मैं इन ब्राह्मणों को भोजन करा लूं, फिर उनसे बात कर कारण समझूंगा ।

ऐसा विचार कर श्रीराम ने स्वयं उन ब्राह्मणों को भोजन कराया....! 

भोजन के बाद ऋषियों को विदा करते समय भी श्रीराम के मस्तिष्क में यह बात रह - रहकर कौंध रही थी कि सीता ने ऐसा अप्रत्याशित व्यवहार क्यों किया...!
 
उन ब्राह्मणों के चले जाने पर श्रीराम ने अपनी प्रियतमा सीताजी से पूछा- 

ब्राह्मणों को देखकर तुम लताओं की ओट में क्यों छिप गई थीं ? 

यह उचित नहीं जान पड़ा. इससे ऋषियों के भोजन में व्यवधान हो सकता था. वे कुपित भी हो सकते थे ।

श्रीराम बोले- हे सीते ! 

तुम्हें तो ज्ञात है कि ऋषियों और ब्राह्मणों को पितरों के प्रतीक मान जाता है. ऐसे में तुमने ऐसा क्यों किया ? 

इसका कारण जानने की इच्छा है...! 

मुझे अविलम्ब बताओ ।

श्री राम के ऐसा कहने पर सीता जी मुँह नीचे कर सामने खड़ी हो गयीं और अपने नेत्रों से आँसू बहाती हुई बोलीं- हे नाथ ! 

मैंने यहां जिस प्रकार का आश्चर्य देखा है, उसे आप सुनें ।

इस श्राद्ध में उपस्थित ब्राह्मणों की अगली पांत में मैंने दो महापुरुषों को देखा जो राजा से प्रतीत होते थे....! 

ऋषियों, ब्राह्मणों के बीच सजे धजे राजा - महाराजा जैसे महापुरुषों को देख मैं अचरज में थी...! 

तभी मैंने आपके पिताश्री के दर्शन भी किए ।

वह भी सभी तरह के राजसी वस्त्रों और आभूषणों से सुशोभित थे....! 

आपके पिता को देखकर मैं बिना बताए एकान्त में चली आय़ी थी....! 

मुझे न केवल लज्जा का बोध हुआ वरन मेरे विचार में कुछ और भी अया तभी निर्णय लिया ।

हे प्रभो ! पेड़ों की छाल वल्कल और मृगचर्म धारण करके मैं अपने स्वसुर के सम्मुख कैसे जा सकती थी ? 

मैं आपसे यह सत्य ही कह रही हूं....! 

अपने हाथ से राजा को मैं वह भोजन कैसे दे सकती थी....! 

जिसके दासों के भी दास कभी वैसा भोजन नहीं करते मिट्टी और पत्तों आदि से बने पात्रों में उस अन्न को रखकर मैं उन्हें कैसे देती ? 

मैं तो वही हूँ जो पहले सभी प्रकार के आभूषणों से सुशोभित रहती थी और आपके पिताश्री मुझे वैसी स्थिति में देख चुके थे...! 

आज मैं इस अवस्था में उनके सामने कैसे जाती इससे उनके मन को भी क्षोभ होता....! 

मैं उनको क्षोभ में कैसे देख सकती थी ? क्या यह कहीं से उचित होता ? 

इन सब कारणों से हुई लज्जा के कारण मैं वापस हो गयी और किसी की दृष्टि न पड़े इस लिए सघन लता गुल्मों में आ बैठी....!

गरुड़ जी बोले- हे भगवन आपकी इस कथा से मेरी शंका का उचित निवारण हो गया कि श्रद्धा में पितृगण साक्षात प्रकट होते हैं और वे श्राद्ध का भोजन करने वाले ब्राह्मणों में उपस्थित रहते हैं....!

(गरूड़ पुराण से)...
जय श्री कृष्ण.....





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पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

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