google() // Google's Maven repository https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 1. आध्यात्मिकता के नशा की संगत और ज्योतिष : મે 2025

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शनिदेव पौराणिक, वैज्ञानिक एवं ज्योतिषीय दृष्टिकोण में ( विस्तृत विवरण )

शनिदेव पौराणिक, वैज्ञानिक एवं ज्योतिषीय दृष्टिकोण में...!


शनिदेव पौराणिक, वैज्ञानिक एवं ज्योतिषीय दृष्टिकोण में ( विस्तृत विवरण )


नवग्रह में शनि ऐसे ग्रह हैं जिसके प्रभाव से कोई व्यक्ति नहीं बचा है। 

ऐसा व्यक्ति तलाश करना असम्भव है जो शनि से डरता न हो। 

कुछ वर्ष पहले तक प्रत्येक व्यक्ति

इनका नाम लेने से भी घबराता था परन्तु कुछ समय से इनकी पूजा - अर्चना बहुत ही अच्छे स्तर पर होने लगी है। 

आज व्यक्ति इनकी महिमा को समझने लगा है। 

उसके मन से इनका भय समाप्त हो रहा है। 

मैं सभी को यह परामर्श देता हूं कि किसी को भी शनिदेव से भयभीत होने की आवश्यकता नंहीं है। 

आप केवल अपने कर्म पर विश्वास रखें, बाकी का सब कुछ शनिदेव पर छोड़ दें। 

मेरा विश्वास है कि यदि आपके इस जन्म के व पिछले जन्म के कर्म अच्छे हैं तो आपको अवश्य ही शनिदेव का आशीर्वाद प्राप्त होगा क्योंकि आपके पिछले जन्म के कर्मों के प्रभाव से आपकी पत्रिका में शनिदेव की स्थिति अनुकूल होगी। 


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इस अनुकूल स्थिति में आपको अवश्य ही शनिदेव का आशीर्वाद प्राप्त होगा पिछला जन्म किसी ने नहीं जाना है, इस लिये यदि आपकी पत्रिका में शनि की स्थिति अनुकूल नहीं है तो फिर आप इस जन्म में अच्छे कर्म करके शनिदेव को अपने अनुकूल कर सकते हैं। 

मेरे अनुभव व ज्योतिषीय ग्रंथों के अनुसार शनिदेव इस संसार के मुख्य न्यायाधीश हैं। 

भगवान शिव ने उन्हें यह जिम्मेदारी सोंपी है। 

इनकी अदालत में अपील की सुविधा है अर्थात् यदि आपसे कोई अपराध हुआ है तो आप अपना अपराध स्वीकार कर केवल जुर्माना भरकर अर्थात् पूजा - अर्चना व दान - धर्म करके शनिदेव का अनुग्रह प्राप्त कर सकते हैं। 

आप अफवाहों एवं अनर्गल बातों पर न जायें क्योंकि कुछ स्वयंभू ज्ञानियों ने जनमानस में शनिदेव का भय बैठा रखा है, जबकि शनिदेव जैसा ग्रह कोई भी नहीं है। 

यदि आप पाप कर रहे हैं तो शनिदेव आपसे सब कुछ छीनने में पल भर की देरी नहीं करेंगे। 

यदि आप अच्छे व धार्मिक कर्म में लीन हैं तो फिर वह आपको राजा बनाने में भी विलम्ब नहीं करेंगे। 

शनिदेव यह नहीं कहते कि आप उनकी बहुत ही पूजा - अर्चना करें तथा अपना कर्म छोड़कर उन्हें पूजें। 

शनिदेव केवल यह चाहते हैं कि आप केवल उनका स्मरण करे अर्थात् कोई भी कार्य करें तो उनका ध्यान रखें। 

आप उनका ध्यान रखेंगे तो फिर आपसे कोई भी गलत कार्य हो ही नहीं सकता है।

ज्योतिष के पितामह महर्षि पाराशर ने अपने ग्रन्थ वृहत्पाराशर होरा शास्त्रम में शनि के स्वरूप के लिये कहा है-

कृशदीर्घतनुः सौरिः पिड्गदृष्यानिलात्मकः।
रस्थूलदन्तोऽलसः पंड्गु खररोमकचो द्विजः ।।

अर्थात् शनि का शरीर दुबला-पतला तथा लम्बा कद होता है। 

इनके मोटे दांत,आलसी स्वभाव के साथ रंग काला होता है। 

रोम एवं केश तीखे व कठोर तथा सदैव। 

नीचे दृष्टि किये हुए होते हैं। 

शनिदेव वायु प्रधान व तामस प्रकृति के साथ क्षुद्रवर्ण के हैं।

पौराणिक परिचय : 


पौराणिक कथा के आधार पर शनिदेव का जन्म सूर्य की पत्नी छाया के ग्ई हुआ है। 

कहते हैं कि इनके जन्म के समय जब इनकी दृष्टि सूर्य पर पड़ी तो उन्हें कुष्ठ रोग हो गया तथा उनके सारथी अरुण पंगु हो गये थे। शनि के भाई का नाम यम तथा बहिन का नाम यमुना है। 

शनिदेव बचपन से ही नटखट व शरारती थे। 

इनकी अपने भाई - बहिनों में से किसी से नहीं बनती थी सूर्यदेव ने सबके युवा होने पर सभी पुत्रो को राज्य बांट दिये परन्तु शनिदेव अपने पिता के इस कृत्य से खुश नहीं थे। वह सारा राज्य स्वयं अकेले ही चलाना चाहते थे। 

उन्होंने ब्रह्मा जी का तप आरम्भ कर दिया। 

जब ब्रह्मा जी शनिदेव की तपस्या से प्रसन्न हो गये तो उन्होंने शनिदेव से वर मांगले को कहा। 

शनिदेव ने उनसे वर मांगा कि मेरी शुभ दृष्टि जिस पर जाये उसका तो कल्याण हो तथा जिस पर मेरी क्रूर दृष्टि जाये उसका सर्वनाश हो जाये । 

ब्रह्मा जी तथास्तु कह कर अन्तर्ध्यान हो गये। 

इसके पश्चात् शनिदेव ने अपने सभी भाइयों का राज - पाट छीन लिया और अकेले ही राज चलाने लगे। 
शनिदेव के अन्य भाई उनके इस कृत्य से दुःखी होकर शिवजी के पास गये और सारी बात कहकर हस्तक्षेप का निवेदन किया। 

इस पर शिवजी ने शनिदेव को बुला कर समझाने का प्रयास किया।

कहा कि तुम्हारे पास तो ब्रह्मा जी से प्राप्त बहुत बड़ी शक्ति है। 

तुम संसार में सदुपयोग करो। 

राज - पाट के चक्कर में क्यों समय नष्ट करते हो। 

शनिदेव बोले कि प्रभु मैं क्या कार्य करूं ? 

तब शिवजी ने शनिदेव व उनके भाई यमराज के मध्य कार्य सौंपे कि यमराज उन प्राणियों के प्राण हरेंगे जिनकी आयु पूर्ण हो चुकी है तथा शनिदेव संसार में लोगों को उनके कर्मों का फल देंगे। 

साथ ही शिवजी ने उन्हें और वर दिया कि तुम्हारी कुदृष्टि के प्रभाव से देवता भी नहीं बचेंगे तथा कलियुग में तुम्हारी अधिक महत्ता होगी। तभी से शनिदेव अपने कर्त्तव्य का पालन कर रहे हैं।

एक कथा के अनुसार गणेश जी का शीश भी शनिदेव की दृष्टि से अलग हुआ था। 

एक बार जब गणेशजी का जन्मदिन मनाया जा रहा था तब उत्सव में शनि्देव भी सम्मिलित हुए थे परन्तु वह अपनी दृष्टि नीचे की ओर किये थे। 

माँ पार्वती ने उनसे कहा कि तुम्हें शायद उत्सव में खुशी नहीं है, इसलिये तुम दृष्टि नीचे किये हो। 

तब शनिदेव ने कहा कि माँ ऐसी बात नहीं है, मेरी दृष्टि होने पर कोई अनर्थ न हो जायथ इस लिये मैंने अपनी दृष्टि नीचे कर रखी है, परन्तु माँ पार्वती नहीं मानी। 

उन्होंने शान को दृष्टि ऊपर करने को निवश कर दिया। 

उनके कहने पर जैसे ही शनिदेव ने अपनी दृष्टि गणेशजी पर डाली, वैसे ही उनका शीश अलग हो गया।



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ऐसे ही एक बार शिवजी ने कहा कि शनिदेव मैं तुम्हारी दृष्टि की परीक्षा लेना।चाहता हूँ। 

इस लिये तुम कल प्रातः आकर मुझ पर दृष्टिपात करना, फिर देखते हैं।

इस दृष्टि से तो आप भी नहीं बचेंगे क्योंकि यह आपका ही दिया वर है। 

यदि आप तुम्हारी दृष्टि का मुझ पर क्या प्रभाव आता है। 

इस पर शनिदेव कहा कि हे प्रभु, मेरी पर मेरी दृष्टि का प्रभाव नहीं आया तो फिर आपके ही वर की बदनामी होगी इस पर शिवजी ने कहा कि देखते हैं, लेकिन अभी जैसा मैंने कहा है, वैसा ही करो। 

दूसरे दिन शिवजी ने पार्वती से कहा कि ऐसा कौनसा स्थान है जहां शनिदेव मुझे न खोज पायें। 

इस पर पार्वती ने कहा कि आपको तो वह हर स्थान पर खोज लेंगे, इस लिये आप किसी जंगल में चले जायें। शिवजी जंगल में जाकर हाथिनी की योनि में विचरने लगे। 

इधर जब शनिदेव आये और माँ पावती से पूछा कि प्रभु कहां हैं तो उन्होंने अज्ञानता जताई। 

शनिदेव वापिस चले गये। 

दूसरे दिन शिवजी ने शनिदेव से कहा कि देखो तुम्हारी दृष्टि का मुझ पर कोई प्रभाव नही आया। 

शनिदेव ने कहा कि क्षमा करें प्रभु, आप पर तो मेरी दृष्टि का प्रभाव कल ही आ गया था, तभी तो आप मेरी दृष्टि के भय से जंगल में हाथिनी की योनि में विचरते रहे। 

यह मेरा अपराध है कि बिना किसी कारण के मैंने देवाधिदेव पर दृष्टिपात किया, इसलिये कलियुग में जो भी प्रातः आपके द्वादश ज्योतिर्लिंगं के नाम के उच्चारण के बाद मेरे दस नामों का उच्चारण करेगा, वह सदैव मेरा आशीर्वाद प्राप्त करेगा ।

मेरे स्वयं के अनुभव में यह आया है कि जो भी व्यक्ति द्वादश ज्योतिर्लिंग के बाद शनिदेव के दस नाम का मानसिक उच्चारण करता है, वह पूर्ण रूप से शनिदेव का आशीर्वाद प्राप्त करता है अर्थात् व्यक्ति पर आने वाले शनिकृत अशुभ फलों में कमी आती है। 

यहां पर मेरा इस कथा का मुख्य उद्देश्य यही है कि शनिदेव की दृष्टि का यह आशय नहीं है कि जब वह किसी को देखें तभी अशुभ फल आयेगा अपितु पत्रिका में शनि की स्थिति के अनुसार फल प्राप्त होता है।

अब जब कथा चल रही है तो मैं आपको श्री हनुमानजी व शनिदेव की कथा भी बता देता हूँ। 

जब हनुमानजी ने लंका को जलाया था तब लंका काली नही हुई थी।

जब हनुमानजी लंका के कारावास में गये तो शनिदेव वहां उलटे लटके थे। 

तब हनुमानजी ने उनसे पूछा कि तुम कौन हो तथा लंका जलने के बाद भी काली क्यों नहीं हो रही है? 

तब शनिदेव ने कहा कि मैं शनि हूँ। 

रावण ने मुझे योगबल के आधार पर बंद कर रखा है। 

यही कारण है कि लंका काली नहीं हो रही है क्योंकि में कैद  हूँ तथा अग्निकाण्ड का कारक भी मैं ही हूं। 

इस लिये जब आप मुझे मुक्त करेंगे तो मेरी मात्र दृष्टिपात से ही लंका काली हो जायेगी। 

हुआ भी यही, जैसे ही हनुमानजी ने शनिदेव को मुक्त किया और शनिदेव ने लंका पर दृष्टिपात किया, वैसे ही लंका काली हो गई। 

हनुमानजी के द्वारा मुक्त करवाने से ऋणमुक्त होने के लिये शनिदेव ने हनुमानजी से वर मांगने को कहा। हनुमानजी ने यही कहा कि कलियुग में जो भी मेरी सेवा करे, उसे तुम अशुभ फल नहीं दोगे तब शनिदेव ने कहा कि ऐसा ही होगा। 

तभी से कहा जाता है कि जो व्यक्ति हनुमानजी की सेवा करता है वह शनिकृत कष्मों के मुक्त रहता है। 

मेरे अनुभव में यह बात किसी हद तक सही है कि हनुमानजी की सेवा से शनिकृत कष्ट पूर्ण समाप्त नहीं होते बल्कि उनमें कमी आती है क्योंकि शनिदेव भी। 

हनुमानजी के बहुत बड़े भक्त थे शनिदेव अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं और हनुमानजी भी अपने एक भक्त के लिये दूसरे भक्त को निराश नहीं करेंगे। 

हनुमान जी की सेवा से शनिकृत कष्टों में कमी अवश्य आती है लेकिन शनिदेव के पूर्ण शुभ फल। 

प्राप्त नहीं होते हैं क्योंकि शनि वचनबद्ध होने से अपने अशुभ फल में तो कमी करेंगे लेकिन शुभ फल भी नहीं देंगे।

शनिदेव को तेल प्रिय होने की यह कथा है कि एक बार शनिदेव ने अपने मद में चूर होकर हनुमानजी को युद्ध के लिये ललकारा। 

प्रारम्भ में तो प्रभु ने मना किया लेकिन अधिक उकसाने पर उन्होंने शनिदेव को अपनी पूंछ में लपेट कर सारे ब्रह्माण्ड के तीन चक्कर लगाये। 

तब शनिदेव का शरीर पहाड़ों से टकरा - टकरा कर छिल गया। 

उन्होंने प्रभु से क्षमा मांगी। 

तब प्रभु हनुमानजी ने शनिदेव को मुक्त किया और अपने हाथों से शनिदेव के शरीर पर आये घावों पर पीड़ा से मुक्ति के लिये सरसों का तेल लगाया। 

तभी से शनिदेव को सरसों का तेल प्रिय है। 

इस प्रकार अन्य अनेक कथायें हैं, परन्तु यह हमारा विषय नहीं है। 

उपरोक्त कथायें शनिदेव को जानने के लिये आवश्यक थीं, इसलिये मैंने आपको बताई।

शनिदेव वैज्ञानिक परिचय :


सौरमण्डल में शनि का स्थान एक सुन्दर ग्रह के रूप में है इसकी सूर्य से दूरी लगभग 7800,00,000 मील है। 

शनि बहुत मन्द गति से भ्रमण करता है। इसी मन्द गति के कारण शनि के अन्य नामों में मन्द व शनि हैं अर्थात् शनै - शनै चलने वाला। 

यह सौरमण्डल का सबसे कम गति का ग्रह है । 

यह लगभग 30 वर्षों में सूर्य की परिक्रमा करता है अर्थात् सम्पूर्ण भचक्र ( 12 राशियों ) का भ्रमण करने में 30 वर्ष लगाता है। 

सूर्य के निकट इसकी गति लगभग 60 मील प्रति घण्टा हो जाती है। 

शनि का व्यास 85,150 मील मतान्तर से 71,500 मील है । 

यह अपनी परिधि पर लगभग 6.1 अंश पर झुका हुआ है। 

इसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति पृथ्वी की अपेक्षा 94 गुणा अधिक है। 

पृथ्वी से शनि की दूरी लगभग 79,10,00,000 मील है। 

मतान्तर से 89,00,00,000 मील है। 

अब वास्तव में कुछ भी दूरी हो परन्तु शनि की गति इतनी धीमी है कि हम चाहकर भी इस का वास्तविक दूरी नहीं जान सकते हैं। 

शनि को सौरमण्डल का सबसे सुन्दर ग्रह माना जाता है। 

शनि के चारों ओर नील, वलय व कंकण नाम के तीन वलय हैं जो शनि के भ्रमण काल में अलग रहते हुए शनि के साथ ही भ्रमण करते हैं जिससे शनि ग्रह की सुन्दरता देखते ही बनती है। 

वैज्ञानिक आधार पर शनि के अतिरिक्त किसी भी ग्रह के वलय नहीं हैं। 

शनि के 10 चन्द्र है। 

अन्य ग्रहों की अपेक्षा शनि सबसे हल्का ग्रह है।

की अपेक्षा अधिक ठण्डा ग्रह है तथा आकार में गुरु की अपेक्षा छोटा है।




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शनिदेव सामान्य परिचय :


नवग्रहों में शनि को सेवक का पद प्राप्त है। 

शनि को कालपुरुष का दुःख कहा जाता है। 

इस संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो शनि के प्रभाव से अछूता ना हो अथवा भय नहीं खाता हो। 

जिस प्रकार हम पत्रिका में शुक्र की स्थिति देखकर जीवन में आने व होने वाले सुखों का ज्ञान प्राप्त करते हैं उसी प्रकार हम पत्रिका में शनि की स्थिति से आने वाले दुःखों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। 

यह एक राशि में लगभग ढाई वर्ष तक रहते हैं। 

शनि को पश्चिम दिशा का स्वामित्व प्राप्त है। 

ज्योतिष में इन्हें नपुंसक लिंग का माना गया है। 

शनि वायु प्रधान ग्रह है। 

शनि के बुध, शुक्र मित्र, सूर्य, चन्द्र, मंगल शत्रु तथा गुरु सम ग्रह है। 

शनि के अन्य नामों में पंगु, असित, अर्किमन्द, रविज, यम, छायासुनु, कृष्णयम, छायात्मज, शनै, सूर्यपुत्र, भास्करि, कपिलाक्ष, अर्कपुत्र, तरणितनय, कोणस्थ, क्रूरलोचन, मन्द व शनैश्चराय हैं।

शनि के लग्न/राशि अनुसार फलों का अध्ययन :


शनि वृद्ध, तीक्ष्ण, आलसी, वायु प्रधान, नपुंसक, तमोगुणी, और पुरुष प्रधान ग्रह है। 

इसका वाहन गिद्ध है। शनिवार इसका दिन है। 

स्वाद कसैला तथा प्रिय वस्तु लोहा है। 

शनि राजदूत, सेवक, पैर के दर्द तथा कानून और शिल्प, दर्शन, तंत्र, मंत्र और यंत्र विद्याओं का कारक है। 

ऊसर भूमि इसका वासस्थान है। 

इसका रंग काला है। 

यह जातक के स्नायु तंत्र को प्रभावित करता है। 

यह मकर और कुंभ राशियों का स्वामी तथा मृत्यु का देवता है। 

यह ब्रह्म ज्ञान का भी कारक है, इसी लिए शनि प्रधान लोग संन्यास ग्रहण कर लेते है। 

शनि सूर्य के पुत्र है। 

इसकी माता छाया एवं मित्र राहु और बुध हैं। 

शनि के दोष को राहु और बुध दूर करते हैं। 

शनि दंडाधिकारी भी है। 

यही कारण है कि यह साढ़े साती के विभिन्न चरणों में जातक को कर्मानुकूल फल देकर उसकी उन्नति व समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है। 

कृषक, मजदूर एवं न्याय विभाग पर भी शनि का अधिकार होता है। 

जब गोचर में शनि बली होता है तो इससे संबद्ध लोगों की उन्नति होती है। 

कुंडली की विभिन्न भावों में शनि की स्थिति के शुभाशुभ फल - शनि 3, 6,10, या 11 भाव में शुभ प्रभाव प्रदान करता है। 

प्रथम, द्वितीय, पंचम या सप्तम भाव में हो तो अरिष्टकर होता है। 

चतुर्थ, अष्टम या द्वादश भाव में होने पर प्रबल अरिष्टकारक होता है। 

यदि जातक का जन्म शुक्ल पक्ष की रात्रि में हुआ हो और उस समय शनि वक्री रहा हो तो शनिभाव बलवान होने के कारण शुभ फल प्रदान करता है। 

शनि सूर्य के साथ 15 अंश के भीतर रहने पर अधिक बलवान होता है। 

जातक की 36 एवं 42 वर्ष की उम्र में अति बलवान होकर शुभ फल प्रदान करता है। 

उक्त अवधि में शनि की महादशा एवं अंतर्दशा कल्याणकारी होती है। 

शनि निम्नवर्गीय लोगों को लाभ देने वाला एवं उनकी उन्नति का कारक है। 

शनि हस्त कला, दास कर्म, लौह कर्म, प्लास्टिक उद्योग, रबर उद्योग, ऊन उद्योग, कालीन निर्माण, वस्त्र निर्माण, लघु उद्योग, चिकित्सा, पुस्तकालय, जिल्दसाजी, शस्त्र निर्माण, कागज उद्योग, पशुपालन, भवन निर्माण, विज्ञान, शिकार आदि से जुड़े लोगों की सहायता करना है। 

यह कारीगरों, कुलियों, डाकियों, जेल अधिकारियों, वाहन चालकों आदि को लाभ पहुंचाता है तथा वन्य जन्तुओं की रक्षा करता है। 

शनि से अन्य लाभ शनि और बुध की युति जातक को अन्वेषक बनाती है। 

चतुर्थेश शनि बलवान हो तो जातक को भूमि का पूर्ण लाभ मिलता है। 

लग्नेश तथा अष्टमेश शनि बलवान हो तो जातक दीर्घायु होता है। 

तुला, धनु, एवं मीन का शनि लग्न में हो तो जातक धनवान होता है। 

वृष तथा तुला लग्न वालो को शनि सदा शुभ फल प्रदान करता है। 

वृष लग्न के लिए अकेला शनि राजयोग प्रदान करता है। 




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कन्या लग्न के जातक को अष्टमस्थ शनि प्रचुर मात्रा में धन देता है तथा वक्री हो तो अपार संपति का स्वामी बनाता है। शनि यदि तुला, मकर, कुंभ या मीन राशि का हो तो जातक को मान - सम्मान, उच्च पद एवं धन की प्राप्ति होती है। 

शनि से शश योग- शनि लग्न से केंद्र में तुला, मकर या कुम्भ राशि में स्थित हो तो शश योग बनता है। 

इस योग में व्यक्ति गरीब घर में जन्म लेकर भी महान हो जाता है। 

यह योग मेष, वृष, कर्क, सिंह, तुला वृश्चिक, मकर एवं कुंभ लग्न में बनता है। 

भगवान राम, रानी लक्ष्मी बाई, पं. मदन मोहन मालवीय, सरदार बल्लभ भाई पटेल, आदि की कुंडली में भी यह योग विद्यमान है। 

विभिन्न लग्नों में शनि की स्थिति के शुभाशुभ फल : 


मेष:🐐

इस लग्न में शनि कर्मेश तथा लाभेश होता है। 

इस लग्न वालों के लिए यह नैसर्गिक रूप से अशुभ है, लेकिन आर्थिक मामलों में लाभदायक होता है। 

वृष:🐂

इस लग्न में केंद्र शनि तथा त्रिकोण का स्वामी होता है। 

उसकी इस स्थिति के फलस्वरूप जातक को राजयोग एवं संपति की प्राप्ति होती है। 

मिथुन💏

इस लग्न में यदि शनि अष्टमेश या नवमेश होता है। 

यह जातक को दीर्घायु बनाता है। 

कर्क:🦀
इस लग्न में शनि अति अकारक होता है। 

सिंह:🦁

इस लग्न में यह षष्ठ एवं सप्तम घर का स्वामी होता है। 

इस स्थिति में यह रोग एवं कर्ज देता है तथा धन का नाश करता है। 

कन्या:👩

इस लग्न में शनि पंचम् तथ षष्ठ स्थान का स्वामी होकर सामान्य फल देता है। 

यदि इस लग्न में अष्टम स्थान में नीच राशि का हो तो व्यक्ति को करोड़पति बना देता है। 

तुला:⚖

इस लग्न के लिए शनि चतुर्थेश तथा पंचमेश होता है। 

यह अत्यंत योगकारक होता है। 

वृश्चिकः🦂

इस लग्न में शनि तृतीयेश एवं चतुर्थेश होकर अकारक होता है, किंतु बुरा फल नहीं देता। 

धनु:🏹

इस लग्न के लिए शनि निर्मल होने पर धनदायक होता है, लेकिन अशुभ फल भी देता है। 

मकर:🐊

इस लग्न के लिए शनि अति शुभ होता है। 

कुंभ:🍯

इस लग्न के लिए भी यह अति शुभ होता है।

मीनः🐳

शनि मीन लग्न वालों को धन देता है, लेकिन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। 

भाव के अनुसार शनि का फल :


प्रथम👉 भाव में शनि तांत्रिक बनाता है, किंतु शारीरिक कष्ट देता है और पत्नी से मतभेद कराता है। 

द्वितीय👉 भाव में शनि संपति देता है, लेकिन लाभ के स्रोत कम करता है तथा वैराग्य भी देता है। 

तृतीय👉 भाव में शनि पराक्रम एवं पुरुषार्थ देता है। शत्रु का भय कम होता है। 

चतुर्थ👉 भाव में शनि हृदय रोग का कारक होता है, हीन भावना से युक्त करता है और जीवन नीरस बनाता है।

पंचम 👉 भाव में शनि रोगी संतान देता है तथा दिवालिया बनाता है। 

षष्ठ👉 भाव में शनि होने पर चोर, शत्रु या सरकार जातक का कोई नुकसान नहीं कर सकता है। उसे पशु-पक्षी से धन मिलता है। 

सप्तम👉 भाव में स्थित शनि जातक को अस्थिर स्वभाव का तथा व्यभिचारी बनाता है। उसकी स्त्री झगड़ालू होती है। 

अष्टम👉 भाव में स्थित शनि धन का नाश कराता है। इसकी इस स्थिति के कारण घाव, भूख या बुखार से जातक की मृत्यु होती है। दुर्घटना की आशंका रहती है। 

नवम्👉 भाव में शनि जातक को संन्यास की ओर प्रेरित करता है। उसे दूसरों को कष्ट देने में आनंद मिलता है। 36 वर्ष की उम्र में उसका भाग्योदय होता है। 

दशम👉 स्थान का शनि जातक को उन्नति के शिखर तक पहुंचाता है। साथ ही स्थायी संपति भी देता है। 

एकादश👉 भाव में स्थित शनि के कारण जातक अवैध स्रोतों से धनोपार्जन करता है। उसकी पुत्र से अनबन रहती है। 

द्वादश👉 भाव में शनि अपनी दशा - अतंर्दशा में जातक को करोड़पति बनाकर दिवालिया बना देता है। 

इस कारण से वर्ण में भी इसको शूद्र वर्ण प्राप्त है। 

सुर्य से शनि की स्थिति काफी दूर है। 

इस दूरी के प्रभाव से ही शनि तक सूर्य की किरणें नहीं जाती हैं। 

इस लिये यह विद्याहीन, काला, प्रकाशहीन व मूर्ख माना गया है। 

इस कारण से ही शनि जिनकी पत्रिका में कमजोर अथवा पापी होता है, वह लोग विद्याहीन व मजदूर वर्ग के होते हैं। 

शनि पर सूर्य की किरणें न पंहुचने के कारण इसको अपूर्ण, हीन व अभाव का द्योतक माना जाता है। प्रकाश के अभाव से कई रोगों की भी उत्पति होती है। 

इस लिये इसको रोग का भी कारक माना गया है। 

शनि की मन्द गति के कारण इसको मन्द व पंगु भी कहा गया है। 

मनुष्य चलता पैरों से है, इस लिये शनि का पैरों से भी बहुत ही घनिष्ट सम्बन्ध है। 

इसी आधार पर मेरे अनुभव से व्यक्ति के पैरों से पत्रिका में शनि की स्थिति का पता चल जाता है। 

शनि के निर्बल अथवा क्षीण होने की स्थिति में ही जातक के पैरों में कष्ट रहता है। 

हमारे शरीर में स्नायु व पेट पर शनि का विशेष प्रभाव होता है। 

शनि से दूसरे कुल अथवा अंग्रेजी भाषा का ज्ञान, आयु, शारीरिक बल, उदारता, मोक्ष, विपत्ति, योगाभ्यास, प्रभुता, ऐश्वर्य, ख्याति, नौकरी व मूर्छा आदि का भी विचार किया जाता है। 

पत्रिका में शनि के माध्यम से हम यह भी देखते हैं कि जातक को अपने जीवन में कब और कितने दुःखों का सामन करना पड़ेगा। 

इस के अतिरिक्त जातक की आयु, मृत्यु, चोरी, मुकदमा, राजदण्ड, फांसी, घाटा, दिवाला, शत्रुता आदि का भी ज्ञान किया जाता है।

कुंडली मे अशुभ शनि, नक्षत्र एवं प्रतिनिधि, एवं शनि का बल :


अशुभ शनि👉 सामान्यतः शनि के पत्रिका में पापी होने पर जातक को स्नायु रोग, दांत में कष्ट, बुखार, पुराना रोग, शीत ज्वर, कोढ़, मानसिक रोग, कमर से निचले हिस्से में पीड़ा, पागलपन, जलोदर, संधिवात, उदरवात तथा किसी भी रोग का दीर्घ काल तक ठीक न होना जैसे रोग अधिक होते हैं। 

शनि अधिक पापी अथवा पीड़ित हो तो जातक अत्यधिक आलसी किस्म का तथा किसी भी कार्य को बहुत ही मन्द गति से करने वाला होता है। 

मैंने शनि के शोध में यह देखा है कि यह पीड़ित अथवा पापी होने पर केवल आलसी तथा निम्न वर्ग के लोगों से अधिक मेल - मिलाप एवं किसी के गलत कार्य में सहयोग देने वाला बनाता है। 

मैने एक बात और देखी कि पत्रिका में यदि शनि लग्नेश है अथवा त्रिषडाय भाव में अथवा अष्टम भाव में बैठा है तो जातक अत्यधिक शुभ कर्म करने वाला होता है। 

यदि किसी शुभ ग्रह का भी प्रभाव हो तो फिर शनि की शुभता में कहीं कमी नहीं होती है। 

शनि जैसा कोई अन्य शुभ ग्रह हो ही नहीं सकता है।

शनि के नक्षत्र व प्रतिनिधि👉 सत्ताइस नक्षत्रों में शनि पुष्य, अनुराधा व उत्तरा भाद्रपद नक्षत्रों का स्वामी होता है। 

बच्चे के जन्म के समय चन्द्र यदि इनमें से किसी नक्षत्र में हो तो जातक की जन्मकालीन दशा का स्वामी शनि होता है। 

शनि का प्रतिनिधि रत्न नीलम है। 

लीली, लीलिया, जामुनिया, नीला मार्का तथा नीला अथवा काला हकीक आदि उपरत्न होते हैं। 

शनि का बल👉  शनि स्वराशि अर्थात् मकर व कुम्भ राशि के साथ स्व वर्ग, अपनी उच्च राशि तुला, शनिवार, सप्तम भाव, अपनी दशा, भुक्ति व राशि के अन्त अर्थात् 20 अंश से 30 अंश तक बली होता है। 

इनके अतिरिक्त शनि दक्षिणायन, स्वद्रेष्काण व कृष्णपक्ष में प्रत्येक राशि में बली होता है। 

मंगल के साथ शनि के बल में वृद्धि होती है। 

किसी वक्री ग्रह अथवा चन्द्रमा के साथ चेष्टाबली होता है। 

शनि पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, अभिजित व श्रवण नक्षत्रों में भी बली होता है। 

शनि अपना प्रभाव 35 से 39 वर्ष की आयु तक दिखाता है। 

पत्रिका में शनि को सामाजिक, प्रजातांत्रिक मूल्यों का प्रतिनिधि माना जाता है। 

इस लिये राजनेताओं की पत्रिका में शनि के माध्यम से सफलता - असफलता का ज्ञान किया जाता है। 

विवाह के समय भी मांगलिक पत्रिकाओं में शनि की उपस्थिति का विशेष ध्यान रखा जाता है।




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शनिदेव की साढ़ेसाती एवं ढैया :


शनि की साढ़ेसाती व ढैय्या👉  वैसे तो इस संसार का प्रत्येक प्राणी शनिदेव के नाम से ही भय खाता है परन्तु जब कोई दैवज्ञ जातक को यह बताता है कि आप पर तो साढ़ेसाती अथवा ढैय्या चल रहा है तो फिर वह भय से जकड़ जाता है। 

मैंने अपने अनुभव में यह देखा है कि कई लोग केवल धन के लालच में जातक को परेशान देखते ही शनि की साढ़ेसाती अथवा ढैय्या का भय दिखा देते हैं। 

इस लिये मेरे मन में यह विचार आया कि जब आप हमारे लेखों से इतना ज्ञान प्राप्त कर रहे है तो क्यों न शनि की साढ़ेसाती व ढैय्या का भी ज्ञान प्राप्त किया जाये मुख्य रूप से मैं आप को बता दूं कि जिनकी दीर्घायु होती है, उनके जीवन में कुल तीन साढ़ेसाती आती हैं, क्योंकि शनि 30 वर्षों के बाद ही एक राशि में आता है। 

यह भी आवश्यक नही है कि शनि की साढ़ेसाती अथवा ढैय्या आपको कष्ट ही देंगे, क्योंकि मैंने अपने अनुभव में ऐसे लोगो को भी देखा है कि जिन्होंने शनि की साढ़ेसाती में इतनी उन्नति की है, जितनी
उन्होंने अपने पूरे जीवन में नहीं की क्योंकि शनि की साढ़ेसाती अथवा ढैय्या का पूर्ण फल आपकी पत्रिका में शनि की स्थिति से मिलता है। शनि की साढ़ेसाती को बृहद् कल्याणी अथवा दीर्घ पनौती भी कहते हैं तथा ढैय्या को लघु कल्याणी अथवा लघु पनौती भी कहते हैं। 

चतुर्थ राशि वाले ढैय्या को कण्टक शनि भी कहते हैं। 

ग्रन्थों के आधार पर यह शनि की सबसे कष्टकारक स्थिति होती है। 

मेरे अनुभव में जैसा मैंने कहा कि पत्रिका में शनि की स्थिति के आधार पर ही फल प्राप्त होते हैं अस्तु, अष्टम राशि के शनि वाले ढैय्या को अष्टम शनि भी कहते है । 

उदाहरण के लिये यदि आपकी पत्रिका में शनि 3 - 6 अथवा 11वे भाव में है तो फिर शनिदेव आपको इतना देंगे जितनी आपने आशा भी नहीं की होगी। 

अब मैं आपको बताता हूं कि शनि की साढ़ेसाती अथवा ढैय्या आते कैसे हैं। 

स्थूलरूप से उदाहरण के लिये जैसे आपकी मिथुन राशि है तो गोचरवश शनि जब वृषभ राशि अर्थात् आपकी राशि से पिछली राशि में आयेंगे तब आपको शनि की साढ़ेसाती का प्रथम चरण ( प्रथम ढैय्या ) आरम्भ होगा जो लगभग ढाई वर्ष चलेगा इसके बाद शनि आपकी राशि में अर्थात् मिथुन राशि में आयेंगे फिर साढ़ेसाती का मध्य ढैय्या चलेगा। 

यहां भी लगभग इतने समय ही रहेंगे। 

इसके बाद शनि आपकी राशि से अगली राशि ( कर्क राशि ) में आयेंगे तो आपकी साढ़ेसाती का अन्तिम ढैय्या होगा तथा जब शनिदेव आपकी राशि से अगली राशि में अर्थात् सिंह राशि में प्रवेश करेंगे तो आपकी साढ़ेसाती समाप्त हो जायेगी। 

इस प्रकार आपकी राशि से पिछली राशि में प्रवेश से आपकी राशि की अगली राशि के निकास तक आपको साढ़ेसाती चलेगी जो लगभग साढ़े सात वर्ष रहती है। 

ज्योतिषीय गणित के आधार पर साढ़ेसाती इस प्रकार से लगती है कि जब भी शनि गोचरवश आपकी राशि अर्थात् जन्मकालीन चन्द्र के अंश, कला व विकला में 330 अंश जोड़ने पर शनि प्रवेश करें तो आपको साढ़ेसाती आरम्भ होगी। 

इसी प्रकार जन्मस्थ चन्द्र के अंश, कला व विकला में 60 अंश जोड़े जाने पर जो भी राशि आयेगी तो गोचरवश शनि के आने पर आपकी साढ़ेसाती समाप्त होगी।

अब मैं आपको ढैय्या का गणित समझाता हूं । 

यहां हम उदाहरण के लिये मिथुन राशि लेते हैं। 

जैसे ही शनि का गोचरवश कर्क राशि से निकास कर सिंह राशि में प्रवेश होगा तो आपकी साढ़ेसाती समाप्त होगी। 

अब लगभग ढाई वर्ष के लिये शनि आपको अच्छा प्रभाव देंगे क्योंकि गोचर में शनि आपकी राशि से तृतीयस्थ हैं तथा जैसे ही शनि सह राशि से निकल कर कन्या राशि में प्रवेश करेंगे तो आपको कण्टक शनि अर्थात् लघु पनौती अर्थात् ढैय्या आरम्भ होगा जो लगभग 30 माह चलेगा। 

30 माह पश्चात् शनि तुला में प्रवेश करेंगे तो आपका दैय्या समाप्त होगा। 

इसी प्रकार जब शनि मकर राशि में प्रवेश करेंगे तो आपको अष्टम शनि अर्थात् लघु पनौती आरम्भ होगी। 

यह भी आपकी राशि पर लगभग 30 माह रहेगी। इस प्रकार लगभग 20 वर्ष निकल जायेंगे। फिर 10 वर्ष पश्चात् आपको पुनः साढेसाती आरम्भ हो जायेगी।

ज्योतिष के अनुसार किसी के जीवन में बचपन में साढ़ेसाती आती है तो उसका प्रभाव उसके माता -  पिता पर अधिक आता है। 

द्वितीय साढ़ेसाती का प्रभाव जातक के व्यवसाय पर अधिक आता है तथा तृतीय व अन्तिम साढ़ेसाती का मतलब ही होता है।

जीवन की समाप्ति अब यह बात अलग है कि जैसे किसी का जन्म तब होता है जब गोचरवश शनि उस राशि से तुरन्त निकला हो तो फिर उसको तो साढ़ेसाती लगभग 28 - 29 वर्ष की आयु में आयेगी तो इसका प्रभाव उसके व्यवसाय पर अधिक आयेगा।

ज्योतिष अनुसार साढ़ेसाती के प्रत्येक चरण का अलग - अलग राशि पर अलग - अलग। 

प्रभाव आता है।

अब मैं आपको प्रत्येक राशि में कौन से चरण पर क्या प्रभाव आता है, यह बताने का प्रयास करता हूं। 

मुख्यतः आप यही माने की साढ़ेसाती का पूर्ण फल पत्रिका में शनि की स्थिति के अनुसार आता है। 

मेरा अनुभव कहता है कि यदि आपकी पत्रिका में चाहे शनि की स्थिति अधिक ठीक न हो अथवा बहुत ही खराब हो तो आप साढ़ेसाती अथवा ढैय्या के समय में श्री शनिदेव का स्मरण कर तथा उनकी प्रतिनिधि वस्तुओं का दान कर कष्टों से पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। 

साथ ही जैसा लोग कहते हैं कि आप तो हनुमानजी की सेवा करो फिर शनिदेव आपसे कुछ नहीं कहेंगे। 

मैं इस बात से पूर्णतः सहमत नहीं हूं हांलाकि मैं भी हनुमानजी का सेवक हूं तथा मैं यह नहीं कहता कि यह बात गलत है यह सही है किन्तु जैसा मैंने पिछले लेखों में कहा कि हमें शनिदेव से बचना ही नहीं है, बल्कि उनसे लाभ भी लेना है। 

हम मान लेते हैं कि शनिदेव अपनी वचनबद्धता से हनुमानजी की सेवा करने से अपना रौद्र रूप नहीं दिखायेंगे तो फिर आप क्या यह समझते हैं कि हनुमानजी भी शनिदेव से कहेंगे कि चाहे कोई कितने भी पाप भी कर ले, यदि वह मेरी सेवा करे तो तुम उसे कष्ट न देना ? 

मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं कि यदि आप पर साढ़ेसाती का कष्ट हो अथवा नहीं, परन्तु यदि आप श्री हनुमान जी व शनिदेव की संयुक्त सेवा करें तथा पीपल की सेवा के साथ शनि की वस्तुओं का दान भी करें तो फिर कुछ ही समय में अपने जीवन में परिवर्तन देखेंगे। 

मेरा विश्वास है कि आप इस सेवा से मानसिक, सामाजिक, भौतिक व आर्थिक रूप से इतनी अधिक उन्नति करेंगे जितनी आपको उम्मीद भी नहीं होगी। 

यहा पर आवश्यकता केवल विश्वास तथा किये जाने वाले उपायों को चुनने व समझने का है क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि तेल दान सभी को लाभ दे हो सकता है उनका केवल दीपदान ही लाभ दे, यह सब कुछ शनि को पत्रिका में पहचाने जाने की है।

प्रत्येक राशि मे साढ़ेसाती के प्रत्येक चरण का प्रभाव :


राशि   प्रथम चरण   द्वितीय   तृतीय चरण
         (ढाई वर्ष)    (ढाई से   (पांच सेसाढ़े
                          पांच वर्ष)   सात वर्ष)

मेष        सम           अशुभ     लाभदायक

वृषभ     अशुभ        शुभ        लाभदायक

मिथुन    शुभ           सम        अशुभ

कर्क      सम           अशुभ      शुभ

सिंह      अशुभ        अधिक     सम
                             अशुभ

कन्या     अशुभ        अधिक     सम
                             अशुभ

तुला       सम           सम         अशुभ

वृश्चिक    सम           अधिक     अशुभ
                             अशुभ

धनु        अशुभ         सम          लाभ

मकर      अशुभ         अधिक      शुभ
                               अशुभ

कुंम्भ       सम           अधिक    अत्यधिक
                              अशुभ      अशुभ    

मीन        अशुभ         अशुभ     अत्यधिक
                                              अशुभ

शनि की महादशा में ग्रहों की अंतर्दशा का फल :


शनि की महादशा में शनि की अंतर्दशा का फल :


कुंडली मे शनि स्वराशि, उच्च और मूल त्रिकोण का हो अथवा १, ४, ५, ७, ९, १०, ११ वें भाव में स्थित हो, तो इस दशा में सम्मान, ख्याति, शासन - प्राप्ति, उच्च - पद की प्राप्ति, विदेशी भाषाओं का ज्ञान, स्त्री-पुरूष की वृद्धि होती है। 

नीच या पाप युक्त होकर शनि ६, ८, १२ वें भाव में हो, तो रक्तस्त्राव, अतिसार, गुल्म रोग होता है। 

द्वितीयेश और सप्तमेश शनि हो, तो अशुभ है। वर्गोंत्तपी हो तो जातक को जीवनपर्यन्त सुख और वैभव से हीन नहीं होने देता । 

हर प्रकार के वाहन,उच्च कोटि के आवास तथा अनेक दास-दासियां सेवा को उपलब्ध रहती है । 

ग्रामसभा,पालिका आदि का सदस्य बनकर प्रधान पद पा लेता है। 

खालों, पशुओं, तेल, कोयला, लोहा और वैज्ञानिक उपकरणों के व्यवसाय से लाभ मिलता है। 

अशुभ शनि की अंतर्दशा चल रही हो तो हर कार्य से विफलता मिलती है और कार्य-व्यवसाय में हानि होती है । 

बन्धु - बान्धवों से बैर बढता है, स्त्री-पुत्र और मृत्यु द्वारा कष्ट मिलता है । 

जातक में ईष्यों और द्वेष की भावना बढ जाती है, नीच जनों की संगति से लोकोपवाद, एकान्तवास करने की इच्छा बलवती हो जाती है। 

दशा का आदिकाल जहां अति कष्टदायक होता है वहीं दशा के अन्त में कुछ सुखानुमूति भी होती है।

शनि की महादशा में बुध की अंतर्दशा का फल :


शनि महादशा में उच्च राशि, स्वराशि, शुभ ग्रहयुफ्त बुध की अन्तर्दशा चले तो जातक निर्मल मति और धर्मशील हो जाता है । 

साधु - सन्यासियों और विद्वानो का सत्संग होता है । 

नौकरी में ही पद और वेतन में वृद्धि होती है । 

स्वास्थ्य अधिकार ठीक ही रहता है, लेकिन यदा - कदा कफ आदि से पीडा हो ही जाती है । 

आप्तजनों और बन्धुवर्ग का सहयोग मिलता है । 

रसीले व स्निग्ध पदार्थ भोजन के लिए मिलते हैं । 

विवेक, वृद्धि व कौशल से शत्रुओं का पराभव होता है। 

प्राय: शनि की अशुभ दशा से पीडित जातक सुख और शान्ति का अनुभव करते हैं ।

यदि बुध अशुभ प्रभावी हो तो अपनी अंतर्दशा में जातक को शत्रु से भयभीत तथा अज्ञात पीडा से विकल रखता है । 

जातक इतना उद्विग्न हो जाता है कि उसे सुस्वादु भोजन और रमणीक स्थान तथा प्रेममय वातावस्पा भी रुचिकर नहीं लगता।

शनि की महादशा में केतु की अंतर्दशा का फल :


केतु यदि केतु शुभ ग्रह से युक्त या दुष्ट होकर योगकाकरक ग्रह से सम्बन्ध करता हो तो शनि महादशा में अपनी अन्तर्दशा आने पर जातक को लेशमात्र ही शुभ फल देता है। 

जातक का कार्य - व्यवसाय शिथिल पड जाता है तथा किए गए श्रम का पारिश्रमिक बहुत थोडा मिलता है । 

नौकरी से पद एवं वेतनवृद्धि में विघ्न जाते है, नीव जनों का संग करता है, भोजन की व्यवस्था दूसरों पर निर्भर रहती है । 

अनेक रोग घेर लेते है और पूर्चार्जित धन चिकित्सा पर व्यय हो जाता है। 

वायु रोग, सर्वाग शूल, जिगर - तिल्ली, कुक्षिपीड़ा एवं मन्दाग्नि रोग से देहपीड़ा मिलती है। 

जातक पूर्व में मिले बुध अन्तर्दशा के शुभ फलों को याद करता है। 

निर्बल केतु की अन्तर्दशा से कुछ शुभ फल अवश्य अनुभव में आते है ।

शनि की महादशा में शुक्र की अंतर्दशा का फल :


शुक्र शनि महादशा में उच्च राशि, स्वराशि, शुभ ग्रहयुक्त व दृष्ट एव केन्द्र व त्रिकोण में स्थित शुक्र की अंतर्दशा हो तो जातक के व्यवसाय में वृद्धि होती है तथा प्रचुर धन कमाता है। 

नौकरी में हो तो पदवृस्जि होती है। 

कलाकार, नाटककार, अपनी कला के माध्यम से धन और मान अजित कर लेते है। 

उच्चधिकारियों का प्रिय बन उनके ह्रदय में अपना स्थान बना लेता है, किसी नवविवाहिता से प्रेम - प्रसंग बन सकता है, ग्राम - समाज में अवस्था एव स्थिति के अनुरूप आदर-सत्कार प्राप्त होता है। 

अशुभ शुक की अन्तर्दशा में जातक से कामवासना अत्यधिक बढ़ जाती है, पस्त्रीगमन, वेश्यागमन, रेस, सट्टा, लाटरी आदि में संचित धन व्यय कर दरिद्र हो जाता है । 

खाने के भी लाले पड़ जाते है । 

यहा तक कि अपनी क्षुघापूर्ति के लिए भिक्षा का सहारा लेता है ।

शनि की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा का फल :


सूर्य शनि महादशा में उच्च राशि, स्वराशि, षडवलयुक्त सूर्य की अंतर्दशा चले तो जातक वैभवपूर्ण जीवनयापन के साधन जुटा लेता है । 

धन - धान्य की वृद्धि और वाहन, वस्त्रालंकार तथा पशुधन प्राप्त होता है। 

भाषाविद इस दशाकाल में निश्चित रूप में मान - सम्मान एव धनार्जन कर लेते है । 

शनि और सूर्य परस्पर नैसर्गिक शत्रु हैं, इस लिए अशुभ सूर्य की दशा में जातक को घोर कष्ट सहन करने होते हैं । 

कठिन परिश्रम करने वाले विद्यार्थी कठिनता से उत्तीर्ण होने योग्य अंक प्राप्त कर पाते हैं, अन्यथा अनुत्तीर्ण ही होना पड़ता है। 

व्यर्थ में लोगों से झगडा होता है, पिता से अनबन और पैतृक सम्पत्ति से वंचित होने से मन सन्तप्त होता है । 

काला ज्वर एवं मन्दाग्नि रोग से पीडा मिलती है ।

शनि की महादशा में चंद्र की अंतर्दशा का फल :


चन्द्र शनि महादशा में उच्च राशि, स्वराशि, शुभ ग्रहों विशेषत: बृहस्पति से दुष्ट या बृहस्पति से केद्रस्थ बली चन्द्रमा की अंतर्दशा चलती है तो जातक को आरोग्य लाभ मिलता ,है सौभाग्य में वृद्धि होती है। 

प्रतियोगी परीक्षा में उत्तीर्ण हो उच्च पद या लेता है, माता का विशेष और पिता का स्वल्प सुख मिलता है । 

स्त्री और स्थान का सुख मिलता है एव इनके कारण यश में वृद्धि होती है । 

सन्तानोत्पत्ति का उत्सव धूमधाम से मनाकर लाभ अर्जित करता है। 

अशुभ और क्षीण चन्द्रमा की दशा में स्त्री-पुत्र से कलह होती है, बन्धुबर्ग एव इष्ट-मित्रों से अनबन, वासनाजनित कर्मों के कारण लोकोपवाद एव सम्मान की हानि होती है। 

मानव को अपना जीवन भार लगने लगता है । 

कुसंगति के कारण शुकक्षय, मधुमेह, स्वप्नदोष, वात के कारण गर्दन में जकडन से पीडा तथा शीत ज्वर आदि व्याधिया देह को कृशकाय बना देती हैं ।

शनि की महादशा में मंगल की अंतर्दशा का फल :


मंगल यदि मंगल कारक, उच्चादि बल एवं शुभ ग्रह से युक्त एव दृष्ट हो तो अपनी अन्तर्दशा के आरम्भ में शुभ फल देता है । 

सैन्य और पुलिसकर्मी इस दशाकाल में लाभान्वित होते है । 

पदोन्नति मिलती है, घोषित संशोधित वेतन का पिछला पैसा मिल जाता है । 

कृषि कार्य, भ्रातृवर्ग से ताभ जिता है। 

नए - नए उद्योग लगाकर व्यापार में वृद्धि कर लेता है। 

बुद्धि भ्रममय और क्रोघावेगपूर्ण हो जाती है और किए गए कार्यो में सफलता सन्देहास्पद रहती है। 

जब पाल अशुभ, नीव या अस्त हो तो मन में विकलता बनी रहती है, कार्य - व्यवसाय में अवनति, राज-सम्मान से अपमान और निरादर होता है । 

लोगों से व्यर्थ में झगड़ा-टंटे होते है, न्यायालय में चल रहे केसों में हार होती है, पदोन्नति होते - होते रुक जाती है। 

रक्तविकार, रक्तचाप और भगंदर आदि से पीडा क्या विद्युत व विमान दुर्घटना में चोट लगती है। 

कोई - न - कोई रोग - व्याधि जातक को घेरे रहती है।

शनि की महादशा में राहु की अंतर्दशा का फल :


राहु यदि शनि की महादशा में राहु की उपदशा चल रही हो तो मिश्रित फल प्राप्त होते है । 

जातक को आकस्मिक रूप से धन लाभ होता है । 

सट्टा, लाटरी, घूतकीड़ा से लाभ होता है । 

देव - बाह्मण के प्रति जातक थोड़ी श्रद्धा रखता है तथा दान - धर्म की राह पर चलता है |

अशुभ राहु की अन्तर्दशा में अनेक कष्ट झेलने पड़ते है। 

कार्य - व्यवसाय समाप्तप्राय हो जाता है, वात वेदना से सर्वाग शूल होता है और जातक ऐसे जीवन की अपेक्षा मृत्यु को अच्छा समझता है। 

मन की व्यथा के कारण इधर - उधर भटकता है कुपथ्य के कारण मन्दाग्नि और अपच जैसे रोग हो जाते हैं, जो अनेक व्याधियों के जनक बन जातक को सराय देते है। 

सारांश यह है कि इस दशा में जातक एक दृष्ट से छुटकारा नहीं पाता कि दूसरा प्रारम्भ हो जाता है।

शनि की महादशा में बृहस्पति की अंतर्दशा का फल :


शुभ बृहस्पति की अंतर्दशा आने पर जातक राहु की अंतर्दशा के दुखों को विस्मृत कर सुख की सास लेता है। 

जातक की वृति धार्मिक और सत्कर्मो की ओर तथा, बुद्धि सात्विक बनती है। 

वह तन्त्र सरीखे गूढ़ विषय का ज्ञान प्राप्त करता है अथवा उसके प्रति आकर्षित होता है। 

पुत्राथी को पुत्र, धनार्थी को धन व ज्ञानार्थी को ज्ञान प्राप्त हो जाता है। 

घर में अनेक मंगल कार्य सम्पन्न होते है । 

जातक सत्कर्मी होकर ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करता है। 

पापी, बलहीन, अशुभ प्रमापी बृहस्पति की अन्तर्दशा में सन्तानबाधा, पत्नी से वियोग, स्थानभ्रष्टता, पदभ्रष्टता आदि फल मिलते हैं । 

किसी प्रियजन की मृत्यु के समाचार से मन को सन्ताप, कर्म हानि, विदेशवास तथा कोढ़ और चमड़ी के रोगों से देहपीड़ा मिलती है ।

शनि दोष निवारण के उपाय   (भाव / लग्न अनुसार) :


कुंडली के प्रत्येक भाव/लग्न में उपस्तिथ शनि के कष्ट निवारण के उपाय :


👉 प्रथम भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय  :-

1👉 अपने ललाट पर प्रतिदिन दूध अथवा दही का तिलक लगाए।
2👉 शनिवार केदिन न तो तेल लगाए और न ही तेल खाए।
3👉 तांबे के बने हुए चार साँप शनिवार के दिन नदी में प्रवाहित करे।
4👉 भगवान शनिदेव या हनुमान जी के मंदिर में जाकर यह प्रथना करे की प्रभु ! हमसे जो पाप हुए हैं, उनके लिए हमे क्षमा करो, हमारा कल्याण करो।
5👉 जब भी आपको समय मिले शनि दोष निवारण मंत्र का जाप करे।

दूसरे भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇

1👉 शराब का त्याग करे और मांसाहार भी न करे।
2👉 साँपो को दूध पिलाए कभी भी साँपो को परेशान न करे , न ही मारे।
3👉 दो रंग वाली गाय / भैस कभी भी न पालें।
4👉 अपने ललाट पर दूध / दही का तिलक करे।
5👉 रोज शनिवार को कडवे तेल का दान करें।
6👉 शनिवार के दिन किसी तालाब, नदी में मछलियों को आटा डाले।
7👉 सोते समय दूध का सेवन न करें।
8👉 शनिवार के दिन सिर पर तेल न लगाएं।

तीसरे भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇

1👉 आपके घर का मुख्य दरवाजा यदि दक्षिण दिशा की ओर हो तो उसे बंद करवा दे।
2👉 रोज शनि चालीसा पढ़ें तथा दूसरों को भी शनि चालीसा भेंट करें।
3👉 शराब का त्याग करे और मांसाहार भी न करे।
4👉 गले में शनि यंत्र धारण करें।
5👉 मकान के आखिर में एक अंधेरा कमरा बनवाएँ।
6👉 अपने घर पर एक काला कुत्ता पाले तथा उस का ध्यान रखें।
7👉 घर क अंदर कभी हैंडपम्प न लगवाएँ।

चतुर्थ भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇

1👉 रात में दूध न पिये।
2👉 पराई स्त्री से अवैध संबंध कदापि न बनाएँ।
3👉 कौवों को दना खिलाएँ।
4👉 सर्प को दूध पिलाएँ।
5👉 काली भैस पालें।
6👉 कच्चा दूध शनिवार दिन कुएं में डालें।
7👉 एक बोतल शराब शनिवार के दिन बहती नदी में प्रवाहित करें

पंचम भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय👇

1👉 पुत्र के जन्मदिन पर नमकीन वस्तुएं बांटनी चाहिए, मिठाई आदि नहीं।
2👉 माँस और शराब का सेवन न करें।
3👉 काला कुत्ता पालें और उसका पूरा ध्यान रखें।
4👉 शनि यंत्र धारण करें।
5👉 शनिदेव की पुजा करें।
6👉 शनिवार के दिन अपने भार के दसवें हिस्से के बराबर वजन करके, बादाम नदी में प्रवाहित करने का कार्य करें।

छठवे भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇

1👉 चमड़े के जूते , बैग , अटैची आदि काप्रयोग न करें।
2👉 शनिवार का व्रत करें।
3👉 चार नारियल बहते पानी में प्रवाहित करें। ध्यान रहे, गंदे नाले मे नहीं करें, परिणाम बिल्कुल उल्टा होगा।
4👉 हर शनिवार के दिन काली गाय को घी से चुपड़ी हुई रोटी नियमित रूप से खिलाएँ।
5👉 शनि यंत्र धारण करें।

सप्तम भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇

1👉 पराई स्त्री से अवैध संबंध कदापि न बनाएँ।
2👉 हर शनिवार के दिन काली गाय को घी से चुपड़ी हुई रोटी नियमितरूप से खिलाएँ।
3👉 शनि यंत्र धारण करें।
4👉 मिट्टी के पात्र में शहद भरकर खेत में मिट्टी के नीचे दबाएँ।
खेत की जगह बगीचे में भी दबा सकते हैं।
5👉 अपने हाथ में घोड़े की नाल का शनि छल्ला धारण करें।

अष्टम भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇
1👉 गले में चाँदी की चेन धारण करें।
2👉 शराब का त्याग करे और मांसाहार भी न करे।
3👉 शनिवार के दिन आठ किलो उड़द बहती नदी में प्रवाहित करें। उड़द काले कपड़े में बांध कर ले जाएँ और बंधन खोल कर ही प्रबहित करें।
4👉 सोमवार के दिन चावल का दान करना आपके लिए उत्तम हैं।
5👉 काला कुत्ता पालें और उसका पूरा ध्यान रखें।

नवम भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇
1👉 पीले रंग का रुमाल सदैव अपने पास रखें।
2 👉 साबुत मूंग मिट्टी के बर्तन में भरकर नदी में प्रवाहित करें।
3👉 सवा 6 रत्ती का पुखराज ज्योतिषी से पूछ कर गुरुवार को धारण करें।
4👉 कच्चा दूध शनिवार दिन कुएं में डालें।
5👉 हर शनिवार के दिन काली गाय को घी से चुपड़ी हुई रोटी नियमितरूप से खिलाएँ।
6👉 शनिवार के दिन किसी तालाब, नदी में मछलियों को आटा डाले।

दशम भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय
1👉 पीले रंग का रुमाल सदैव अपने पास रखें।
2👉 आप अपने कमरे के पर्दे , बिस्तर का कवर , दीवारों का रंग आदि पीला रंग की करवाए यह आप के लिए उत्तम रहेगा।
3👉 पीले लड्डू गुरुवार के दिन बाँटे।
4👉 आपने नाम से मकान न बनवाएँ।
5👉 अपने ललाट पर प्रतिदिन दूध अथवा दही का तिलक लगाए।
6👉 शनि यंत्र धारण करें।
7👉 जब भी आपको समय मिले शनि दोष निवारण मंत्र का जाप करे।

एकादश भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय👇 
1👉 शराब और माँस से दूर रहें।
2👉 मित्र के वेश मे छुपे शत्रुओ से सावधान रहें।
3👉 सूर्योदय से पूर्व शराब और कड़वा तेल मुख्य दरवाजे के पास भूमि पर गिराएँ।
4👉 परस्त्री गमन न करें।
5👉 शनि यंत्र धारण करें।
6👉 कच्चा दूध शनिवार के दिन कुएं में डालें।
7👉 कौवों को दाना खिलाएँ।

द्वादश भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇
1👉 जातक झूठ न बोले।
2👉 शराब और माँस से दूर रहें।
3👉  चार सूखे नारियल बहते पानी में प्रवाहित करें।
4👉 शनि यंत्र धारण करें।
5👉 शनिवार के दिन काले कुत्ते ओर गाय को रोटी खिलाएँ।
6👉 शनिवार को कडवे तेल , काले उड़द का दान करे।
7👉 सर्प को दूध पिलाएँ।

कृपया पोस्ट पर शंका समाधान की आशा ना रखे।
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 

सोम प्रदोष व्रत , मासिक कालाष्टमी नियम एवं विधि :

सोम प्रदोष व्रत , मासिक कालाष्टमी नियम एवं विधि : सोम प्रदोष व्रत  हिंदू धर्म में प्रदोष व्रत का बड़ा महत्व है।  यह व्रत भगवान शिव को स...